
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सर्वप्रथम पंचांग में तिथि दी हुई रहती है । चन्द्रमा की एक कला को तिथि कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांशों पर तिथि का मान (तिथि के प्रारम्भ होने से उसकी समाप्ति पर्यन्त) निकाला जाता है। सूर्य और चन्द्रमा के परिभ्रमण में प्रतिदिन 12 अंशों का अन्तर रहता है, यह अन्तरांशों का मध्यम मान है। एक मास में 30 तिथियाँ होती हैं और दो पक्ष होते हैं। पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से अमावस्या तक की पन्द्रह तिथियाँ कृष्ण पक्ष और अमावस्या के बाद प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की पन्द्रह तिथियाँ शुक्ल पक्ष कहलाती हैं। तिथि = चंद्र स्पष्ट - सूर्य स्पष्ट 12 १ प्रतिपदा, २ द्वितीया, ३ तृतीया, ४ चतुर्थी, ५ पंचमी, ६ षष्ठी, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, ९ नवमी, १० दशमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी और ३० कृष्ण पक्ष में अमावस्या शुक्ल पक्ष में पूर्णमासी ये तिथियां हैं।
वार का मान चौबीस घंटे या साठ घटी का होता है। सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक के समय को वार कहते हैं। सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होती है उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार रहता है। पृथ्वी से ग्रहों की दूरी अनुसार लिखा जाए तो इस प्रकार लिखेंगे शनि, गुरु, मङ्गल, रवि, शुक्र, बुध और चंद्रमा। ये ग्रह पृथ्वी से क्रमशः दूर - शनि सबसे दूर, बृहस्पति उससे निकट मंगल उससे भी निकट है। इसी प्रकार अन्य ग्रहों को समझें । एक दिन में 24 होराएं होती हैं। एक-एक घंटे की एक-एक होरा होती है। अर्थात् घंटे का दूसरा नाम होरा है। प्रत्येक होरा का स्वामी अधः कक्षाक्रम से एक-एक ग्रह होता है। हमारे ऋषि-मुनियों की दृष्टि सृष्ट्यारंभ में सबसे पहले सूर्य पर पड़ी, इसलिए पहली (1) होरा का स्वामी सूर्य को माना जाता है। अतएव पहले वार का नाम आदित्यवार या रविवार है । तत्पश्चात् उस दिन की दूसरी होरा का नाम स्वामी उसके पासवाला शुक्र, 3री का बुध, 4थी का चंद्रमा, 5वीं का शनि, 6ठी का गुरु, 7वीं का मंगल, 8वीं का रवि, 9वीं का शुक्र, 10वीं का बुध, 11वीं का चंद्रमा, 12वीं का शनि, 13वीं का गुरु, 14वीं का मंगल, 15वीं का रवि, 16वीं का शुक्र, 17वीं का बुध, 18वीं का चंद्रमा, 19वीं का शनि, 20वीं का बृहस्पति, 21वीं का मंगल, 22वीं का रवि, 23वीं का शुक्र और 24वीं का बुध स्वामी होता है। पश्चात् दूसरे दिन की पहली होरा का स्वामी चंद्रमा पड़ता है, अतः दूसरा वार सोमवार या चंद्रवार माना जाता है। इसी तरह तीसरे दिन की पहली होरा का स्वामी मंगल, चौथे दिन की पहली होरा का स्वामी बुध, पांचवें दिन की पहली होरा का स्वामी गुरु, छठे दिन की पहली होरा का स्वामी शुक्र एवं सातवें दिन की पहली होरा का स्वामी शनि होता है। इसलिए क्रमशः रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि ये वार माने जाते हैं। रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, और शनिवार ये सात दिन वार कहलाते हैं।
अनेक ताराओं के विशिष्ट आकृतिवाले पुंज को 'नक्षत्र कहते हैं। आकाश में जो असंख्य तारक मण्डल विभिन्न रूपों और आकारों में दिखलाई पड़ते हैं, वे ही नक्षत्र कहे जाते हैं। ज्योतिष में ये नक्षत्र विशिष्ट स्थान रखते हैं। आकाश मण्डल में इन समस्त तारक - पुजों को ज्योतिष शास्त्र ने 27 भागों में बांट दिया है और प्रत्येक भाग का अलग से नामकरण कर दिया है। इन नक्षत्रों को और सूक्ष्मता से समझाने के लिए इनके चार-चार भाग और कर दिए गये हैं जो 'चरण के नाम से जाने जाते हैं। कुछ ज्योतिर्विद 27 की बजाय 28 नक्षत्र मानते हैं, किन्तु नक्षत्र तो 27 ही हैं, 28वां नक्षत्र अभिजित् तो उत्तराषाढ़ा की अन्तिम 15 घटियों तथा श्रवण की प्रथम चार घटियों को मिलाकर 19 घटी मान का होता है। इसलिए इसे अलग से नहीं माना जाता। नक्षत्र = चंद्र स्पष्ट (मिनटों में) 800' = जो पूर्ण संख्या भाग करके आये उससे अगला नक्षत्र जातक का जन्म नक्षत्र कहलायेगा । अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, अभिजित श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा और रेवती।
नैसर्गिक योगों का एक ही क्रम रहता है, परन्तु तात्कालिक योग तिथि, वार एवं नक्षत्र के विशेष संगम से बनते हैं। पंचांग में योग नैसर्गिक होते हैं, उसे विषकम्भ आदि योग कहते हैं। चन्द्रमा और सूर्य दोनों मिलकर जब आठ सौ कलाएं चल चुकते हैं तो एक 'योग' बीतता है। दूसरी प्रकार से इसे हम यों कह सकते हैं कि योग वास्तव में चन्द्रमा और सूर्य की यात्रा की सम्मिलित दूरी पार करने का एक नाप है। योग शब्द का अर्थ होता है जोड़। यहां भी यह शब्द चन्द्रमा और सूर्य की यात्रा की दूरी के जोड़ का द्योतक है। योग कुल सत्ताईस हैं। अश्विनी नक्षत्र से जब चन्द्रमा और सूर्य दोनों मिलकर आठ सौ कलाएं चल चुकते हैं तो एक योग बीतता है। इस प्रकार 21,600 कलाएं अश्विनी से चल चुकने पर 27 योग बीतते हैं। चन्द्रमा और सूर्य की 360 अंशों ( 12 राशियों) की कलात्मक यात्रा को 27 भागों में विभाजित कर लिया गया है तथा उन भागों का नामकरण कर लिया गया है। 'योग' नक्षत्र की भांति कोई तारा समूह नहीं होता बल्कि निश्चित दूरी का एक विभाजित माप है। योग = सूर्य स्पष्ट + चंद्र स्पष्ट 800' = जो संख्या भाग करके आये उससे अगला योग उस समय का होगा, जिस समय के सूर्य स्पष्ट और चंद्र स्पष्ट लिये गये होंगे। विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, बृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, बज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरियान, परिघ, शिव, सिद्धि, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, एन्द्र और वैधृति ये २७ योग हैं।
तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है, अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। इस प्रकार, करण = चंद्र स्पष्ट - सूर्य स्पष्ट 6 = भाग करके जो संख्या आए उस संख्या का करण उस समय का करण होगा जिस समय का सूर्य स्पष्ट और चंद्र स्पष्ट लिये गये होंगे। बवश्च बालवश्चैव कोलवस्तैतिलसपा । गरश्च वणिजो विष्टिः सप्तैव करणानि च ।। 1. बव, 2.बालव, 3. कौलव, 4. तैत्तिल, 5. गर, 6. वणिज, 7. विष्टि, 8. शकुनि, 9. चतुष्पद, 10. नाग, 11. किंस्तुघ्न । बव, शकुनि, कौलव, तैत्तिल, गर, वणिज एवं विष्टि करणों की संज्ञा चर है जबकि चतुष्पद, नाग एवं किंस्तुघ्न करणों की संज्ञा 'स्थिर' होती है।
हिंदू पंचांग की तीन प्रकार का हो सकता है।