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तुलसी विवाह 2023: मुहूर्त, कथा और महत्व

तुलसी विवाह एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है, जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के स्वरूप शालीग्राम और तुलसी का विवाह कराया जाता है।

तुलसी विवाह 2023 मुहूर्त:

 

  • 24 नवंबर 2023
  • अभिजित मुहूर्त – सुबह 11.46 – दोपहर 12.28
  • गोधूलि बेला – शाम 05.22 – शाम 05.49
  • सर्वार्थ सिद्धि योग – पूरे दिन
  • अमृत सिद्धि योग – सुबह 06.50 – शाम 04.01

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तुलसी विवाह की कथा:

पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक राक्षस था जिसका नाम जालंधर था। वह बहुत ही शक्तिशाली था, उसे हराना आसान न था। उसके शक्तिशाली होने का कारण था, उसकी पत्नी वृंदा। जालंधर की पत्नी वृंदा पतिव्रता थी। उसके प्रभाव से जालंधर को कोई भी परास्त नहीं कर पाता था। जालंध का आतंक इस कद्र बढ़ा की देवतागण परेशान हो गए।

जालंधर से मुक्ति पाने के लिए देवतागण मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। इसके बाद समाधान यह निकाला गया की क्यों न वृंदा के सतीत्व को ही नष्ट कर दिया जाए। पत्नी वृंदा की पतिव्रता धर्म को तोड़ने के लिए भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धारण कर वृंदा को स्पर्श कर दिया। जिसके कारण वृंदा का पतिव्रत धर्म नष्ट हुआ और जालंधर की शक्ति क्षीण हो गई और युद्ध में शिव जी ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

वृंदा विष्णु जी की परम भक्त थी जब उसे ये पता चला कि स्वंय विष्णु जी ने उसके साथ छल किया है तो उसे गहरा आघात पहुंचा। वृंदा ने श्री हरि विष्णु को श्राप दिया कि वे तुरंत पत्थर के बन जाएं। भगवान विष्णु ने देवी वृंदा का श्राप स्वीकार किया और वे एक पत्थर के रूप में आ गए। यह देखकर माता लक्ष्मी ने वृंदा से प्रार्थना की कि वह भगवान विष्णु को श्राप से मुक्त करें।

वृंदा ने भगवान विष्णु को तो श्राप मुक्त कर दिया लेकिन, उसने खुद आत्मदाह कर लिया। जहां वृंदा भस्म हुई वहां पौधा उग गया, जिसे विष्णु जी ने तुलसी का नाम दिया और बोले कि शालिग्राम नाम से मेरा एक रूप इस पत्थर में हमेशा रहेगा। जिसकी पूजा तुलसी के साथ ही की जाएगी। यही वजह है कि हर साल देवउठनी एकादशी पर विष्णु जी के स्वरूप शालीग्राम जी और तुलसी का विवाह कराया जाता है।

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तुलसी विवाह 2023 पूजन सामग्री

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कैसे मनाएं तुलसी विवाह

  • तुलसी विवाह के दिन अपने घर में यज्ञ और सत्यनारायण की कथा कराने से विशेष लाभ मिलता है।
  • तुलसी विवाह घर या मंदिर में मनाया जा सकता है।
  • इस दिन शाम तक या तुलसी जी का विवाह होने तक व्रत रखा जाता है।
  • सबसे पहले तुलसी जी के पौधे और भगवान विष्णु की मूर्ति को स्नान कराया जाता है।
  • इसके बाद तुलसी के पौधे को लाल साड़ी या चुनरी, आभूषण औ बिंदी आदि के साथ एक दुल्हन की तरह सजाया जाता है।
  • विष्णु जी की मूर्ति को धोती पहनाई जाती है। अब इन दोनों को धागे के माध्यम से एक साथ बांधा जाता है।
  • विवाह में तुलसी जी और भगवान विष्णु पर सिंदूर और चावल की वर्षा की जाती है।
  • इसके बाद सभी भक्तों को प्रसाद बांटा जाता है।

तुलसी विवाह एक शुभ अवसर है, जो प्रेम, विश्वास और समर्पण का प्रतीक है। इस दिन लोग भगवान विष्णु और तुलसी की पूजा करते हैं और उनसे सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।

मान्यता है कि इस दिन तुलसी माता और शालिग्राम जी की आरती विधि अनुसार करनी चाहिए, जिससे सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

 

तुलसी माता की आरती

जय जय तुलसी माता

सब जग की सुख दाता, वर दाता

जय जय तुलसी माता ।।

 

सब योगों के ऊपर, सब रोगों के ऊपर

रुज से रक्षा करके भव त्राता

जय जय तुलसी माता।।

 

बटु पुत्री हे श्यामा, सुर बल्ली हे ग्राम्या

विष्णु प्रिये जो तुमको सेवे, सो नर तर जाता

जय जय तुलसी माता ।।

 

हरि के शीश विराजत, त्रिभुवन से हो वन्दित

पतित जनो की तारिणी विख्याता

जय जय तुलसी माता ।।

 

लेकर जन्म विजन में, आई दिव्य भवन में

मानवलोक तुम्ही से सुख संपति पाता

जय जय तुलसी माता ।।

 

हरि को तुम अति प्यारी, श्यामवरण तुम्हारी

प्रेम अजब हैं उनका तुमसे कैसा नाता

जय जय तुलसी माता ।।

 

श्री शालिग्राम जी की आरती

शालिग्राम सुनो विनती मेरी |

यह वरदान दयाकर पाऊं ||

 

प्रातः समय उठी मंजन करके |

प्रेम सहित स्नान कराऊं ||

 

चन्दन धूप दीप तुलसीदल |

वरण – वरण के पुष्प चढ़ाऊं ||

 

तुम्हरे सामने नृत्य करूं नित |

प्रभु घण्टा शंख मृदंग बजाऊं ||

 

चरण धोय चरणामृत लेकर |

कुटुम्ब सहित बैकुण्ठ सिधारूं ||

 

जो कुछ रूखा – सूखा घर में |

भोग लगाकर भोजन पाऊं ||

 

मन बचन कर्म से पाप किये |

जो परिक्रमा के साथ बहाऊं ||

 

ऐसी कृपा करो मुझ पर |

जम के द्वारे जाने न पाऊं ||

 

माधोदास की विनती यही है |

हरि दासन को दास कहाऊं ||

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अहोई अष्टमी 2023 व्रत कथा: जानें इस व्रत की महत्वपूर्ण कथा

अहोई अष्टमी उत्तर भारत में बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाने वाला एक लोकप्रिय हिंदू त्योहार है। यह त्यौहार मुख्य रूप से माताओं द्वारा मनाया जाता है, जो अपने बच्चों की भलाई के लिए उपवास करती हैं और प्रार्थना करती हैं। अहोई शब्द का अर्थ है ‘सुरक्षा’ और अष्टमी का अर्थ है ‘आठवां दिन’, जो कार्तिक महीने में चंद्रमा के घटते चरण के आठवें दिन पड़ता है। इस दिन माताएं सूर्योदय से सूर्यास्त तक व्रत रखती हैं और आकाश में तारे देखने के बाद व्रत तोड़ती हैं। इस दिन का महत्व इस तथ्य में निहित है कि ऐसा माना जाता है कि प्रजनन क्षमता की देवी अहोई माता इस व्रत को करने वालों के बच्चों को आशीर्वाद देती हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम अहोई अष्टमी व्रत कथा के पीछे की कहानी, इसके महत्व और अहोई माता का आशीर्वाद पाने के लिए आप इस व्रत को कैसे कर सकते हैं, इसका पता लगाएंगे।

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1. अहोई अष्टमी व्रत का परिचय

अहोई अष्टमी व्रत, जिसे अहोई अष्टमी पूजा के रूप में भी जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण हिंदू व्रत है जिसे माताएं अपने बच्चों की भलाई और समृद्धि के लिए बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाती हैं। यह शुभ दिन कार्तिक महीने में चंद्र पखवाड़े के आठवें दिन पड़ता है, जो आमतौर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर में अक्टूबर या नवंबर महीने के साथ संरेखित होता है।

“अहोई” शब्द “अहोई माता” शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है “विपत्तियों से रक्षा करने वाली देवी।” अष्टमी चंद्र चक्र के आठवें दिन को संदर्भित करती है। यह व्रत मुख्य रूप से माताओं द्वारा मनाया जाता है, विशेषकर जिनके बेटे हैं, अपने बच्चों की लंबी उम्र और समृद्धि के लिए अहोई माता का आशीर्वाद और सुरक्षा पाने के लिए।

अहोई अष्टमी व्रत हिंदू संस्कृति में बहुत महत्व रखता है और माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति एक आकर्षक लोककथा से हुई है। प्रचलित किंवदंती के अनुसार, एक बार एक महिला थी जिसने दीवार बनाने के लिए धरती खोदते समय गलती से एक चूहे को मार डाला। उसके कृत्य से व्यथित होकर, उसे एक दिव्य आवाज से क्षमा मांगने और अपने बच्चों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए अहोई अष्टमी व्रत करने की सलाह दी गई।

तब से, इस व्रत का पालन पीढ़ियों से माताओं द्वारा किया जा रहा है जो सुबह से शाम तक सख्त उपवास रखते हैं। वे आमतौर पर सूर्यास्त के बाद, शाम के आकाश में तारे देखने के बाद ही अपना उपवास तोड़ते हैं। दिन के दौरान, माताएं प्रार्थना अनुष्ठानों में संलग्न होती हैं, अहोई अष्टमी व्रत कथा (व्रत से जुड़ी कहानी) पढ़ती हैं, और अहोई माता की तस्वीर या मूर्ति की पूजा करती हैं। वे विशेष प्रार्थना करते हैं, आरती करते हैं (रोशनी के साथ पूजा की रस्म), और अपने बच्चों की खुशी और समृद्धि के लिए देवी का आशीर्वाद मांगते हैं।

अहोई अष्टमी व्रत न केवल आध्यात्मिक महत्व रखता है बल्कि परिवारों के लिए एक साथ आने और जश्न मनाने का भी समय है। माताएँ स्वादिष्ट पारंपरिक भोजन और मिठाइयाँ तैयार करती हैं, जिन्हें बाद में परिवार के सदस्यों और करीबी रिश्तेदारों के साथ बाँटा जाता है। यह एक खुशी का अवसर है जो माताओं और उनके बच्चों के बीच के बंधन को मजबूत करता है, प्यार, देखभाल और पारिवारिक सद्भाव को बढ़ावा देता है।

अंत में, अहोई अष्टमी व्रत एक पूजनीय हिंदू व्रत है जो एक माँ के अपने बच्चों के प्रति गहरे प्यार और भक्ति का प्रतीक है। यह व्रत परिवारों को एक साथ लाता है, आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देता है और करुणा और कृतज्ञता के मूल्यों को स्थापित करता है। इस व्रत को करके माताएं अपने प्यारे बच्चों की भलाई, सुख और समृद्धि के लिए अहोई माता का आशीर्वाद मांगती हैं।

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2. अहोई अष्टमी का महत्व और इतिहास

अहोई अष्टमी, जिसे अहोई अष्टमी व्रत के नाम से भी जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो माताओं द्वारा अपने बच्चों की भलाई और समृद्धि के लिए मनाया जाता है। यह शुभ दिन हिंदू कैलेंडर के अनुसार, कार्तिक महीने में चंद्रमा के घटते चरण के आठवें दिन पड़ता है। हिंदू संस्कृति में इसका अत्यधिक महत्व है और इसे बहुत भक्ति और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।

अहोई अष्टमी का इतिहास और महत्व प्राचीन काल से मिलता है। किंवदंती है कि एक छोटे से गाँव में एक दयालु महिला रहती थी। उसके सात बेटे थे और वह उनके प्रति बहुत समर्पित थी। एक दिन, जब वह अपने घर के नवीनीकरण के लिए मिट्टी खोद रही थी, उसने गलती से एक युवा शावक को मार डाला। अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए, उसने देवी अहोई भगवती से क्षमा माँगते हुए प्रार्थना की।

उनकी सच्ची प्रार्थनाओं और पश्चाताप से प्रभावित होकर, देवी अहोई भगवती उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें उनके पुत्रों की भलाई और दीर्घायु का आशीर्वाद दिया। उस दिन से, अहोई अष्टमी माताओं के लिए व्रत रखने और अपने बच्चों के कल्याण के लिए देवी अहोई भगवती से प्रार्थना करने का एक महत्वपूर्ण दिन बन गया।

इस दिन, माताएं जल्दी उठती हैं और पूरे दिन कठोर उपवास रखती हैं, भोजन और पानी का सेवन नहीं करती हैं। वे लाल मिट्टी या रेत का उपयोग करके अहोई माता की चल नामक एक पवित्र प्रतीक बनाकर देवी अहोई भगवती की पूजा करते हैं। यह प्रतीक सात पुत्रों का प्रतिनिधित्व करता है और देवी की छवि से सुशोभित है।

माताएं अपने बच्चों को अहोई अष्टमी व्रत कथा, इस त्योहार की कहानी सुनाती हैं और इससे जुड़ी पारंपरिक मान्यताओं और मूल्यों को बताती हैं। वे अपनी संतानों की समृद्धि, अच्छे स्वास्थ्य और लंबे जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं।

अहोई अष्टमी माताओं के लिए अत्यधिक सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्व रखती है, क्योंकि यह न केवल उनके और उनके बच्चों के बीच के बंधन को मजबूत करती है, बल्कि दैवीय शक्ति में उनके विश्वास को भी मजबूत करती है जो उनके परिवार की रक्षा करती है और आशीर्वाद देती है। यह माताओं के अपने बच्चों के प्रति बिना शर्त प्यार और समर्पण की याद दिलाता है।

कुल मिलाकर, अहोई अष्टमी का उत्सव एक सुंदर परंपरा है जो हिंदू संस्कृति की गहरी जड़ों वाली मान्यताओं और रीति-रिवाजों को प्रदर्शित करती है। यह परिवारों को एक साथ लाता है, प्रेम और एकता को बढ़ावा देता है, और माताओं के लिए अपनी भक्ति व्यक्त करने और अपने बच्चों के लिए आशीर्वाद मांगने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।

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3. अहोई अष्टमी व्रत कथा के पीछे की पौराणिक कथा

अहोई अष्टमी एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो माताओं द्वारा अपने बच्चों की भलाई और समृद्धि के लिए मनाया जाता है। यह शुभ अवसर दुर्गा पूजा के बाद आठवें दिन पड़ता है, विशेष रूप से हिंदू कैलेंडर के अनुसार कार्तिक महीने में। जबकि यह त्योहार अत्यधिक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व रखता है, अहोई अष्टमी व्रत कथा के पीछे की कथा को समझे बिना यह अधूरा है।

प्रचलित मान्यता के अनुसार, एक गाँव में एक धनी महिला अपने सात बेटों के साथ रहती थी। एक दिन, जब वह अपने घर के चारों ओर दीवार बनाने के लिए मिट्टी खोद रही थी, उसकी कुदाल से गलती से एक बच्चे की मौत हो गई। हैरान और पश्चाताप करते हुए, उसे एहसास हुआ कि उसके कृत्य ने दिव्य देवी अहोई भगवती को नाराज कर दिया था, जो शावक की मां के रूप में उसके सामने प्रकट हुईं। देवी ने उसे श्राप दिया और परिणामस्वरूप, उसके सभी पुत्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गए।

अपराधबोध और दुख से अभिभूत होकर, महिला ने एक ऋषि से मार्गदर्शन मांगा, जिन्होंने उसे कार्तिक महीने की अष्टमी (आठवें दिन) पर सख्त उपवास करने की सलाह दी। उसे दीवार पर अहोई भगवती की एक छवि बनाने और रात भर जागरण करने और आकाश में तारे देखने के बाद ही अपना व्रत तोड़ने का निर्देश दिया गया।

महिला ने ऋषि की सलाह का सावधानीपूर्वक पालन किया और पूरी निष्ठा से व्रत रखा। उसने क्षमा और अपने पुत्रों की भलाई के लिए अहोई भगवती से बहुत प्रार्थना की। उनके समर्पण और ईमानदारी से देवी प्रभावित हुईं, जो फिर से प्रकट हुईं और उन्हें स्वस्थ और समृद्ध पुत्रों का आशीर्वाद दिया।

यह चमत्कारी घटना गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गई और जल्द ही, अहोई अष्टमी व्रत कथा मनाने की परंपरा शुरू हो गई। विशेष रूप से, माताओं ने अपने बच्चों की भलाई की रक्षा करने और अहोई भगवती का आशीर्वाद पाने के साधन के रूप में इस अनुष्ठान को अपनाया।

प्रत्येक बीतते वर्ष के साथ, यह कथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रही है, जिससे अनगिनत माताओं के दिलों में विश्वास और भक्ति पैदा हुई है। अहोई अष्टमी अब बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है, क्योंकि माताएँ अपने बच्चों के स्वास्थ्य, खुशी और सफलता के लिए प्रार्थना करते हुए सुबह से शाम तक उपवास करती हैं।

जैसा कि हम अहोई अष्टमी मनाते हैं, आइए इस शुभ त्योहार के पीछे की पौराणिक कथा को याद करें और संजोएं। अहोई भगवती का आशीर्वाद हमारे जीवन में प्रचुरता और आनंद लाए और एक माँ और उसके बच्चों के बीच के बंधन को पोषित करे।

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4. एक समर्पित माँ और उसके बेटों की कहानी

अहोई अष्टमी की कहानी एक माँ के अपने बेटों के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण के इर्द-गिर्द घूमती है। यह एक ऐसी कहानी है जो एक माँ और उसके बच्चों के बीच गहरे बंधन का उदाहरण देती है, यह दर्शाती है कि एक माँ उनकी भलाई सुनिश्चित करने के लिए किस हद तक जा सकती है।

पौराणिक कथा के अनुसार, एक छोटे से गाँव में एक महिला रहती थी जिसके सात बेटे थे। एक दिन, जब वे एक नदी के पास खेल रहे थे, बेटों ने गलती से एक युवा शावक को मार डाला। पश्चाताप से भरी और अपने कार्यों के परिणामों से डरकर, माँ ने दयालु देवी अहोई माता से अपने पुत्रों की क्षमा और सुरक्षा के लिए प्रार्थना की।

माँ के सच्चे प्रेम और भक्ति से बहुत प्रभावित होकर, अहोई माता उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आश्वासन दिया कि उनके बेटों को कोई नुकसान नहीं होगा। उन्होंने परिवार को आशीर्वाद दिया लेकिन पश्चाताप और सच्ची प्रार्थनाओं के महत्व पर भी जोर दिया।

दैवीय साक्षात्कार से प्रेरित होकर, माँ ने कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) महीने में कृष्ण पक्ष के आठवें दिन व्रत रखा, जिसे अहोई अष्टमी के नाम से जाना जाता है। वह साल-दर-साल व्रत का पालन करती रही और उसके बेटे अहोई माता की दिव्य कृपा से समृद्ध हुए।

समर्पित माँ और उसके बेटों की कहानी हमें माँ के प्यार की शक्ति और परमात्मा से क्षमा और आशीर्वाद मांगने के महत्व की याद दिलाती है। इस कहानी का सम्मान करने के लिए अहोई अष्टमी मनाई जाती है, और दुनिया भर में माताएं अपने बच्चों की भलाई और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करते हुए, अत्यंत भक्ति के साथ व्रत रखती हैं।

इस शुभ दिन पर माताएं सूर्योदय से पहले उठती हैं, पवित्र स्नान करती हैं और अहोई माता की पूजा करती हैं। वे दीवारों पर अहोई माता की छवि बनाते हैं, इसे चमकीले रंगों से सजाते हैं, और अनुष्ठान के हिस्से के रूप में फल, मिठाई और सिक्के चढ़ाते हैं। शाम को आसमान में तारे देखने के बाद ही व्रत तोड़ा जाता है, जो दिन के अंत और उनकी प्रार्थनाओं की पूर्ति का प्रतीक है।

अहोई अष्टमी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक माँ और उसके बच्चों के बीच शाश्वत बंधन का उत्सव भी है। यह उन माताओं के निस्वार्थ प्रेम और बलिदान को संजोने और सम्मान देने की याद दिलाता है, जो हमेशा अपनी संतानों की भलाई और खुशी के लिए प्रयास करती हैं।

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5. अहोई अष्टमी के दौरान मनाए जाने वाले रीति-रिवाज और अनुष्ठान

अहोई अष्टमी एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो माताओं द्वारा अपने बच्चों की भलाई और लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है। यह शुभ दिन शरद नवरात्रि के बाद आठवें दिन पड़ता है, आमतौर पर अक्टूबर या नवंबर के महीने में। अहोई अष्टमी के दौरान मनाए जाने वाले रीति-रिवाज और अनुष्ठान गहरा सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व रखते हैं।

इस दिन, माताएं सुबह से शाम तक कठोर उपवास रखती हैं, जिसे अहोई अष्टमी व्रत के रूप में जाना जाता है। वे शाम के आकाश में तारे देखने तक भोजन और पानी का सेवन करने से परहेज करते हैं, जो उपवास के अंत का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि यह व्रत समृद्धि लाता है और उनके बच्चों का कल्याण सुनिश्चित करता है।

अहोई अष्टमी की विशेषता अहोई अष्टमी व्रत कथा नामक एक अनोखी पेंटिंग के निर्माण से भी है। यह पेंटिंग एक मां और उसके सात बेटों की कहानी दर्शाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, अपने घर के नवीनीकरण के लिए मिट्टी खोदते समय माता ने गलती से एक चूहे को मार डाला। चूहा वास्तव में एक परी थी जिसने उसे श्राप दिया था कि उसके सभी बेटे मर जायेंगे।

हालाँकि, अपनी गलती का एहसास होने पर माँ को पश्चाताप हुआ और उसने परी से माफ़ी मांगी। परी ने उस पर दया की और उसे अपने बच्चों की रक्षा के लिए अहोई अष्टमी व्रत करने की सलाह दी। मान्यता है कि इस व्रत को सच्चे मन से करने से माता के पुत्र श्राप से बच जाते हैं।

अहोई अष्टमी के दौरान एक और महत्वपूर्ण परंपरा “हलवा” नामक एक विशेष पकवान तैयार करना है। यह मीठा व्यंजन गेहूं के आटे, घी, चीनी और सूखे मेवों का उपयोग करके बनाया जाता है। इसे देवता को प्रसाद (पवित्र भोजन) के रूप में चढ़ाया जाता है और फिर परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों के बीच वितरित किया जाता है।

शाम के समय, महिलाएं अहोई अष्टमी पूजा करने के लिए एकत्रित होती हैं। वे अपने घरों में एक पवित्र स्थान पर एक छोटा मंदिर बनाते हैं या सात पुत्रों की पेंटिंग के साथ देवी अहोई की एक तस्वीर रखते हैं। पूजा में प्रार्थना करना, फूल, फल और मिठाइयाँ चढ़ाना और देवता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अहोई अष्टमी व्रत कथा का पाठ करना शामिल है।

अहोई अष्टमी माताओं के प्रति भक्ति, कृतज्ञता और प्रेम का समय है। यह माँ और बच्चे के बीच के बंधन को मजबूत करता है और पारिवारिक एकता के मूल्य को मजबूत करता है। इस त्योहार से जुड़े रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों का पालन करके, परिवार अपने बच्चों की भलाई और समृद्धि के लिए दिव्य आशीर्वाद मांगते हैं।

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6. अहोई अष्टमी व्रत कैसे करें

अहोई अष्टमी व्रत का पालन करना भक्तों के लिए बहुत महत्व रखता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह उनके परिवारों में आशीर्वाद और समृद्धि लाता है। इस शुभ व्रत का पालन कैसे करें, इसके बारे में चरण-दर-चरण मार्गदर्शिका यहां दी गई है:

1. तैयारी: अपने घर की सफाई और शुद्धिकरण से शुरुआत करें। पूजा क्षेत्र को फूलों, रंगोली और अन्य पारंपरिक वस्तुओं से सजाएं। व्रत के लिए सभी आवश्यक सामग्री इकट्ठा करें, जिसमें देवी अहोई की तस्वीर या मूर्ति, एक कलश (बर्तन), फल, मिठाई और अन्य प्रसाद शामिल हैं।

2. उपवास: अहोई अष्टमी के दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक कठोर उपवास रखें। यह व्रत आमतौर पर विवाहित महिलाएं अपने बच्चों की सलामती और लंबी उम्र के लिए रखती हैं। हालाँकि, आशीर्वाद और समृद्धि के लिए कोई भी इस व्रत में भाग ले सकता है।

3. पूजा अनुष्ठान: शाम को स्नान करें और साफ, पारंपरिक पोशाक पहनें। जल से एक छोटा कलश तैयार करें, उसमें दूध की कुछ बूंदें मिलाएं। कलश के पास देवी अहोई की तस्वीर या मूर्ति रखें। अगरबत्ती जलाएं और भगवान को ताजे फूल, फल और मिठाइयां चढ़ाएं।

4. व्रत कथा: परिवार के सदस्यों को पूजा क्षेत्र के आसपास इकट्ठा करें और अहोई अष्टमी व्रत कथा सुनाएं। यह कहानी एक समर्पित माँ के इर्द-गिर्द घूमती है जो अनजाने में एक चूहे को मार देती है, जिसके परिणामस्वरूप उसके बच्चों की मृत्यु हो जाती है। हालाँकि, देवी अहोई के आशीर्वाद से, वह अपने बच्चों की भलाई पुनः प्राप्त कर लेती है।

5. प्रार्थना और प्रसाद: देवी अहोई की पूजा करें और उनसे अपने परिवार के कल्याण और समृद्धि के लिए आशीर्वाद मांगें। अपने बच्चों की भलाई और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करें। अपनी कृतज्ञता और भक्ति व्यक्त करते हुए, देवता को फल, मिठाइयाँ और अन्य प्रसाद चढ़ाएँ।

6. व्रत खोलना: पूजा अनुष्ठान पूरा करने के बाद सादा और सात्विक भोजन करके अपना व्रत खोलें। परिवार के सदस्यों में प्रसाद बांटें और उनका आशीर्वाद लें।

7. दान: इस व्रत के एक भाग के रूप में, जरूरतमंद लोगों को दान देने की प्रथा है। खुशी और सद्भावना फैलाते हुए, कम भाग्यशाली लोगों को भोजन, कपड़े या पैसे दान करें।

याद रखें, अहोई अष्टमी व्रत केवल अनुष्ठानों का पालन करने के बारे में नहीं है, बल्कि ईश्वर के प्रति भक्ति, विश्वास और कृतज्ञता के बारे में भी है। इस व्रत को सच्चे दिल और सच्ची भक्ति के साथ करने से, आप देवी अहोई का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन में प्रचुरता का अनुभव कर सकते हैं।

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7. अहोई अष्टमी से जुड़ी प्रार्थनाएं और मंत्र

अहोई अष्टमी एक विशेष हिंदू त्योहार है जो माताओं द्वारा अपने बच्चों की भलाई और लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है। इस शुभ अवसर पर दिन भर व्रत रखने के साथ-साथ प्रार्थना और मंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
दिन की शुरुआत माताओं द्वारा सूर्योदय से पहले जागने और स्नान करने से होती है। फिर वे अपने घरों में एक पवित्र स्थान बनाते हैं, जिसे देवी अहोई और उनके सात पुत्रों, जिन्हें सप्तमातृका भी कहा जाता है, की तस्वीरों या मूर्तियों से सजाया जाता है।
माताएं देवी अहोई की पूजा करके अपने बच्चों के स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि के लिए आशीर्वाद मांगती हैं। वे अपनी भक्ति और कृतज्ञता व्यक्त करते हुए, देवी को समर्पित मंत्रों का जाप करते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये मंत्र उनके छोटे बच्चों के लिए सकारात्मक ऊर्जा और सुरक्षा लाते हैं।
अहोई अष्टमी के दौरान सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला मंत्र अहोई अष्टमी व्रत कथा है। यह पवित्र कहानी एक माँ की कहानी बताती है जो खेतों में काम करते समय गलती से अपने सात बेटों को मार देती है। दुःख से अभिभूत होकर, वह देवी अहोई से क्षमा मांगती है, जो उसे उसके पुत्रों को पुनर्जीवित करने का वरदान देती है। उस दिन से, माँ और उसका परिवार देवी का सम्मान करने और अपने बच्चों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए अहोई अष्टमी को व्रत के रूप में मनाना शुरू कर देते हैं।
व्रत कथा के अलावा माताएं अन्य मंत्रों जैसे अहोई अष्टमी मंत्र और सप्तमातृका मंत्र का भी जाप करती हैं। ये मंत्र देवी और उनके सात पुत्रों की दिव्य ऊर्जाओं का आह्वान करते हैं, जिससे वातावरण सकारात्मक कंपन और दिव्य आशीर्वाद से भर जाता है।
इन प्रार्थनाओं और मंत्रों को अत्यंत भक्ति और विश्वास के साथ पढ़कर, माताओं का मानना ​​है कि वे अपने बच्चों के साथ बंधन को मजबूत कर सकती हैं और देवी अहोई की सुरक्षात्मक कृपा का आह्वान कर सकती हैं। यह एक सुंदर और हार्दिक परंपरा है जो परिवारों को एक साथ लाती है और अपने बच्चों के लिए मां के शाश्वत प्रेम को मजबूत करती है।

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8. इस दिन पारंपरिक भोजन और व्यंजन बनाए जाते हैं

अहोई अष्टमी हिंदू माताओं द्वारा अपने बच्चों की भलाई और समृद्धि के लिए मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। अनुष्ठान करने और व्रत रखने के साथ-साथ, इस शुभ दिन के दौरान पारंपरिक भोजन और व्यंजन तैयार करने का भी बहुत महत्व है।
अहोई अष्टमी पर तैयार किए जाने वाले पारंपरिक व्यंजनों में से एक “पंचामृत” है, जो पांच सामग्रियों – दूध, दही, शहद, घी और चीनी का एक पवित्र मिश्रण है। माना जाता है कि इस स्वादिष्ट मिश्रण पर दैवीय आशीर्वाद होता है और इसे प्रार्थना के दौरान देवताओं को चढ़ाया जाता है। फिर इसे परिवार के सदस्यों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है, जो आशीर्वाद और सौभाग्य को साझा करने का प्रतीक है।
अहोई अष्टमी के लिए तैयार किया जाने वाला एक और लोकप्रिय व्यंजन “हलवा” है। सूजी, घी, चीनी से बनाया गया और मेवों से सजाया गया यह मीठा व्यंजन शुभ माना जाता है और देवताओं को भी चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस विशेष हलवे का सेवन करने से परिवार में सुख, समृद्धि और सफलता आती है।
इसके अतिरिक्त, इस उत्सव के दिन “खीर” का एक विशेष स्थान है। चावल, दूध और चीनी से तैयार यह मलाईदार और सुगंधित मिठाई प्यार और भक्ति के साथ पकाया जाता है। इसे भोजन के हिस्से के रूप में परोसा जाता है और बच्चों की भलाई के लिए कृतज्ञता और आशीर्वाद के रूप में देवताओं को भी चढ़ाया जाता है।
इन व्यंजनों के अलावा, अहोई अष्टमी के खुशी के अवसर को मनाने के लिए कई अन्य पारंपरिक व्यंजन जैसे पूड़ी, सब्जी और विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ तैयार की जाती हैं। ये पारंपरिक खाद्य पदार्थ न केवल उत्सवों में स्वाद जोड़ते हैं बल्कि परिवार के भीतर बंधन को भी मजबूत करते हैं क्योंकि हर कोई उत्सव की दावत का आनंद लेने के लिए एक साथ आता है।
इस शुभ दिन पर, यह माना जाता है कि इन पारंपरिक व्यंजनों को भक्ति और प्रेम के साथ पकाने और खाने से पूरे परिवार में समृद्धि, स्वास्थ्य और खुशी आती है। इन व्यंजनों की सुगंध घर को खुशी और उत्साह से भर देती है, जिससे अहोई अष्टमी इसमें शामिल सभी लोगों के लिए एक यादगार और यादगार त्योहार बन जाती है।

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9. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अहोई अष्टमी उत्सव

अहोई अष्टमी, देवी अहोई की पूजा को समर्पित एक हिंदू त्योहार है, जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह त्योहार हिंदू महीने कार्तिक में, आमतौर पर अक्टूबर या नवंबर के महीने में चंद्रमा के घटते चरण के आठवें दिन पड़ता है।

उत्तर भारत में, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्यों में, अहोई अष्टमी का अत्यधिक महत्व है। इस दिन माताएं अपने बच्चों की सलामती और लंबी उम्र के लिए सुबह से शाम तक व्रत रखती हैं। शाम को आसमान में तारे देखने के बाद ही व्रत खोला जाता है।

उत्सव की शुरुआत अहोई अष्टमी पूजा करने के लिए महिलाओं के एकत्रित होने से होती है। एक छोटा चौकोर आकार का क्षेत्र अन्य देवताओं के साथ-साथ देवी अहोई के पवित्र प्रतीकों और चित्रों से सजाया गया है। मुख्य अनुष्ठान में दीवार या कागज के टुकड़े पर देवी अहोई की छवि बनाना और उनकी प्रार्थना करना शामिल है।

राजस्थान में इस त्यौहार को “अहोई माता” के नाम से जाना जाता है। महिलाएं सुबह-सुबह उठकर अपने घरों की दीवारों पर अहोई माता का चित्र बनाती हैं। वे पूरे दिन उपवास करते हैं और तारों को देखने के बाद ही इसे तोड़ते हैं। यह व्रत अनजाने में हुई किसी भी गलती या पाप के लिए माफी मांगने का एक तरीका माना जाता है।

भारत के अन्य हिस्सों, जैसे महाराष्ट्र और गुजरात में, अहोई अष्टमी को सितारों की पूजा के दिन के रूप में मनाया जाता है। महिलाएं कठोर व्रत रखती हैं और “सप्तऋषि” नामक नक्षत्र की पूजा करती हैं। शाम को आसमान में तारे देखने के बाद ही व्रत खोला जाता है।

अहोई अष्टमी के उत्सवों में क्षेत्रीय विविधताएँ भारत की विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को उजागर करती हैं। मतभेदों के बावजूद, बच्चों और परिवार के प्रति प्रेम और समर्पण की अंतर्निहित भावना स्थिर रहती है।

इस शुभ दिन पर, परिवार एक साथ आते हैं, स्वादिष्ट भोजन साझा करते हैं और आशीर्वाद का आदान-प्रदान करते हैं। यह माता-पिता और बच्चों के बीच बंधन को मजबूत करने और परिवार के उपहार के लिए आभार व्यक्त करने का समय है।

अहोई अष्टमी न केवल एक धार्मिक त्योहार है बल्कि प्रेम, एकता और मातृत्व की भावना का उत्सव भी है। यह एक माँ और उसके बच्चे के बीच शाश्वत बंधन और सभी सीमाओं से परे बिना शर्त प्यार की याद दिलाता है।

जैसे-जैसे त्योहार नजदीक आ रहा है, आइए हम अहोई अष्टमी के सार को अपनाएं और उन मूल्यों को संजोएं जो इसके प्रतीक हैं। यह शुभ दिन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मना रहे सभी परिवारों के लिए खुशी, समृद्धि और आशीर्वाद लाए।

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10. अहोई अष्टमी व्रत का निष्कर्ष एवं आज के युग में इसका महत्व

निष्कर्षतः, अहोई अष्टमी व्रत आज की दुनिया में बहुत महत्व रखता है। हालाँकि यह एक पारंपरिक हिंदू अनुष्ठान है, इसका महत्व समय और संस्कृति से परे है। यह व्रत केवल बच्चों की भलाई के लिए उपवास और प्रार्थना करने के बारे में नहीं है, बल्कि यह माता-पिता के अपनी संतानों के प्रति गहरे प्यार और स्नेह का भी प्रतीक है। यह हमारे जीवन में बच्चों के अनमोल उपहार को संजोने और उसकी रक्षा करने की याद दिलाता है।

आज की तेज़-तर्रार और व्यस्त जीवनशैली में, अहोई अष्टमी व्रत का पालन करने से हमें बच्चों द्वारा लाए जाने वाले आनंद और आशीर्वाद पर थोड़ा रुककर विचार करने का मौका मिलता है। यह हमें उनकी भलाई को प्राथमिकता देने और विकर्षणों और चुनौतियों से भरी दुनिया में उनके विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित करता है।

इसके अलावा, अहोई अष्टमी व्रत समुदाय और एकजुटता की भावना को बढ़ावा देता है। परिवार इस शुभ दिन को मनाने के लिए एक साथ आते हैं, कहानियाँ साझा करते हैं और पीढ़ियों के बीच बंधन को मजबूत करते हैं। यह एक धागे के रूप में कार्य करता है जो हमें हमारी जड़ों और परंपराओं से जोड़ता है, पीढ़ियों से चले आ रहे मूल्यों और शिक्षाओं को मजबूत करता है।

इसके अतिरिक्त, अहोई अष्टमी व्रत हमें कृतज्ञता और प्रार्थना का महत्व सिखाता है। यह हमें जीवन के उपहार और हमें मिलने वाले आशीर्वाद के प्रति आभार व्यक्त करने की याद दिलाता है। उपवास, प्रार्थना और अनुष्ठानों के माध्यम से, हम आध्यात्मिकता और ध्यान की भावना विकसित करते हैं, जो हमारे जीवन में शांति और सद्भाव ला सकता है।

ऐसी दुनिया में जहां भौतिक संपत्ति को अक्सर प्राथमिकता दी जाती है, अहोई अष्टमी व्रत प्रेम, करुणा और परिवार की प्रधानता को दोहराता है। यह हमारे रिश्तों को प्राथमिकता देने और उन मूल्यों को अपनाने के लिए एक सौम्य अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है जो वास्तव में मायने रखते हैं।

निष्कर्षतः, अहोई अष्टमी व्रत आज की दुनिया में बहुत महत्व रखता है, जो हमें बच्चों, परिवार, कृतज्ञता और आध्यात्मिकता के महत्व की याद दिलाता है। इस व्रत का पालन करके, हम न केवल अपनी परंपराओं से जुड़ते हैं बल्कि अपने जीवन में उद्देश्य और पूर्ति की गहरी भावना भी विकसित करते हैं। आइए हम इस खूबसूरत अनुष्ठान को अपनाएं और इससे मिलने वाले आशीर्वाद को संजोएं।

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Karwa Chauth Vrat Katha In Hindi : करवा चौथ की सरल संपूर्ण 3 कथाएं

Karwa Chauth: करवा चौथ एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो भारत और दुनिया भर के अन्य हिस्सों में मनाया जाता है। यह व्रत विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है।करवा चौथ का व्रत रखने की परंपरा कब से और कैसे प्रारंभ हुई? क्या है इसके पीछे की पौराणिक कथाएं? करवा चौथ की 1 नहीं लगभग 3 कथाएं प्रचलन में हैं जिनसे जुड़ा हुआ है करवाचौथ का व्रत त्योहार। आओ जानते हैं इन्हीं कथाओं को संक्षिप्त में।

पहली कथा : प्राचीन काल की बात है कि एक साहूकार के 7 बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहां तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूंकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।

सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चांद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चांद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चांद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।

वह पहला टुकड़ा मुंह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुंह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है। उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।

सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सुईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर कार्तिक चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियां चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियां उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से ‘यम सुई ले लो, पिय सुई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो’ ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।

इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूंकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह कर वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है

अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अंगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुंह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्री गणेश-श्री गणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है।

दूसरी कथाद्रोपदी और अर्जुन की कहानी

द्रोपदी ने करवा चौथ का व्रत अर्जुन की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए रखा था। जब अर्जुन नीलगिरी पर्वत पर तपस्या करने गए थे, तो द्रोपदी को उनकी चिंता सताने लगी। उन्होंने श्री कृष्ण भगवान से मदद मांगी।

श्री कृष्ण ने द्रोपदी को करवा चौथ का व्रत रखने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि इस व्रत को करने से द्रोपदी की चिंताएं दूर हो जाएंगी और अर्जुन सुरक्षित वापस आ जाएंगे।

द्रोपदी ने श्री कृष्ण की बात मान ली और करवा चौथ का व्रत रखा। उन्होंने पूरे दिन उपवास रखा और शाम को चांद को अर्घ्य देकर व्रत तोड़ा।

द्रोपदी के व्रत के प्रभाव से अर्जुन सुरक्षित वापस आ गए। उन्होंने द्रोपदी से कहा कि उन्होंने करवा चौथ का व्रत करने के कारण ही उन्हें इस कठिनाई से बचाया जा सका।

तीसरी कथा  करवा चौथ की कथा

करवा चौथ की कथा एक साहूकार की बेटी करवा के बारे में है। करवा एक धर्मपरायण और पतिव्रता महिला थी। एक दिन, करवा के पति ने नदी में स्नान करते समय एक मगरमच्छ का शिकार किया। मगरमच्छ ने बदला लेने के लिए करवा के पति को मारने की कोशिश की।

करवा ने अपने पति को बचाने के लिए कड़ी मेहनत की। उसने मगरमच्छ को एक पेड़ से बांध दिया और फिर उसे मार डाला। करवा के पति की जान बच गई, लेकिन वह बहुत बीमार हो गए।

करवा ने अपने पति के ठीक होने के लिए करवा चौथ का व्रत रखा। उसने पूरे दिन उपवास रखा और शाम को चांद को अर्घ्य देकर व्रत तोड़ा। करवा के सच्चे प्रेम और समर्पण से प्रसन्न होकर, देवताओं ने उसके पति को ठीक कर दिया।

करवा चौथ की पूजा विधि

करवा चौथ की पूजा विधि निम्नलिखित है:

  • सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ-सुथरे कपड़े पहनें।
  • करवा चौथ की पूजा सामग्री तैयार करें, जिसमें करवा, सुहाग सामग्री, रोली, अक्षत, हल्दी, कुमकुम, सिंदूर, माला, धूप, दीप, नैवेद्य आदि शामिल हैं।
  • करवा चौथ की कथा पढ़ें।
  • करवा चौथ की पूजा करें।
  • शाम को चांद को अर्घ्य दें।
  • व्रत खोलें और अपने पति के साथ भोजन करें।

करवा चौथ के कुछ महत्वपूर्ण मंत्र

  • करवा चौथ व्रत कथा में भगवान शिव और माता पार्वती का मंत्र:
ॐ नमः शिवाय।
ॐ पार्वतीपतये नमः।
  • करवा चौथ की पूजा में भगवान गणेश का मंत्र:
ॐ गं गणपतये नमः।
  • करवा चौथ की पूजा में माता पार्वती का मंत्र:
ॐ देवी पार्वती नमः।

करवा चौथ के कुछ महत्वपूर्ण व्रत नियम

  • करवा चौथ का व्रत रखने वाली महिला को पूरे दिन उपवास रखना चाहिए।
  • करवा चौथ की पूजा में सुहाग सामग्री का इस्तेमाल करना चाहिए।
  • करवा चौथ की पूजा में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करनी चाहिए।
  • शाम को चांद को अर्घ्य देकर ही व्रत खोलना चाहिए

करवा चौथ का महत्व

करवा चौथ का व्रत हिंदू महिलाओं के लिए आशा और विश्वास का प्रतीक है। यह कथा सुझाती है कि पतिव्रता महिलाओं के सच्चे प्रेम और समर्पण से उनके पति के जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

स्यमन्तक मणि की कथा, कलंक चतुर्थी कथा

स्यमन्तक मणि की रोमांचक कथा

एक समय की बात है, द्वारिका नगरी में सत्राजित नाम का एक यादव रहता था। वह भगवान सूर्य का परम भक्त था। भगवान सूर्य ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे एक अद्भुत मणि प्रदान की, जिसका नाम था स्यमन्तक। यह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देने वाली थी।

एक दिन, सत्राजित ने अपने भाई प्रसेनजित को वह मणि पहना दी। प्रसेनजित उस मणि को पहनकर शिकार के लिए वन में चला गया। वहां एक शेर ने उसे मार डाला और मणि लेकर चला गया।

जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बहुत दुख हुआ। उसने सोचा कि शायद श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसके भाई का वध कर दिया होगा। इसलिए उसने श्रीकृष्ण पर झूठा आरोप लगाया कि उन्होंने प्रसेनजित को मारकर मणि छीन ली है।

श्रीकृष्ण को इस बात से बहुत दुख हुआ। उन्होंने सत्राजित को समझाया कि वह निर्दोष हैं, लेकिन सत्राजित ने उनकी बात नहीं मानी। उसने श्रीकृष्ण को बदनाम करने के लिए जगह-जगह प्रचार कर दिया।

श्रीकृष्ण को अपने ऊपर लगे झूठे आरोपों से बहुत दुख हुआ। उन्होंने इस कलंक को दूर करने के लिए स्यमन्तक मणि की खोज शुरू की। उन्होंने वन में कई दिनों तक खोजबीन की, लेकिन उन्हें मणि नहीं मिली।

आखिरकार, एक दिन श्रीकृष्ण को जामवंत नाम के एक रीछराज के पास मणि मिली। जामवंत ने बताया कि उसने एक सिंह को मारकर मणि को अपने कब्जे में लिया था।

श्रीकृष्ण ने जामवंत से मणि वापस मांगी, लेकिन जामवंत ने उसे देने से मना कर दिया। दोनों के बीच युद्ध छिड़ गया। श्रीकृष्ण ने जामवंत को पराजित करके मणि को अपने कब्जे में ले लिया।

श्रीकृष्ण ने मणि को सत्राजित को लौटा दिया। सत्राजित को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने श्रीकृष्ण से माफी मांगी। श्रीकृष्ण ने उसे माफ कर दिया। यह कथा सुनने से भी कलंक दोष नहीं लगता। 

इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों पर बिना किसी सबूत के आरोप नहीं लगाने चाहिए। झूठे आरोप लगाने से हमारा ही नुकसान होता है।

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चंद्रदर्शन से कलंक

श्रीकृष्ण ने स्यमन्तक मणि की खोज के दौरान भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्रमा को देख लिया था। इस कारण उन्हें झूठे आरोपों का सामना करना पड़ा।

नारदजी ने श्रीकृष्ण को बताया कि भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्रमा को देखने से मनुष्य पर चोरी आदि का झूठा लांछन लगता है। इस दिन चंद्रमा को देखने से बचना चाहिए।

इसलिए, भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्रमा को देखने से बचना चाहिए। यदि किसी को भूल से चंद्रमा दिख जाए तो उसे सिद्धिविनायक व्रत करना चाहिए। इस व्रत से कलंक दूर हो जाता है।

श्रीकृष्ण ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया

श्रीकृष्ण ने भी कलंक से मुक्त होने के लिए सिद्धिविनायक व्रत किया था। इस व्रत के प्रभाव से उन पर लगा झूठा आरोप साफ हो गया।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भी गणेश चतुर्थी का व्रत किया था। इस व्रत के प्रभाव से उन्हें युद्ध में विजय प्राप्त हुई।

इसलिए, हमें भी गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। इस व्रत से हमें सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।

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Gita Jayanti: भागवत गीता के अनुसार ईश्वर का उपदेश सार

भागवत गीता का अमर उपदेश
• रात दिन और हर घड़ी बाकी है जब तक जिन्दगी फ़र्ज़ पूरा करने में इन्साँ न घबराए कभी
• यह न लाए फ़िक्र दिल में कल को क्या अंजाम है फर्ज अदा करता रहे इस का इतना काम है
• जिस्म फानी है तो क्या राम रूह मर सकती नहीं आत्मा का कोई शक्ति नाश कर सकती नहीं
• धर्मं पालन के लिये ही इन्सों को मिलता है शरीर धर्म युद्ध से डरते नहीं जो हैं सच्चे शूरवीर
• जिस की नज़रों में खरे हैं सब कोई खोटा नहीं राजा से लेकर रंक तक कोई बड़ा छोटा नहीं
• भूल जाए अपने को भी जो परमात्मा के ध्यान में गीत जो गाता रहे हरदम उसी की शान में
• ईश्वर के वास्ते ही काम सब करता है जो और उस को जान कर बुरे कर्म से डरता है जो
• भक्त कहते हैं उसे भगवान का प्यारा है वो इस कदर प्यारा कि उसकी आँख का तारा है वोपरमात्मा

Geeta-Jayanti

 

Gita Jayanti 2023

  • Geeta Jayant :  22 दिसंबर 2023 

ईश्वर

भागवत गीता के अनुसार ईश्वर एक है परन्तु उसे कई नामों में पुकारा जाता है। ब्रह्म, आत्मा ख़ुदा, परमात्मा, गाड, वाहेगुरु नारायण, राम, कृष्ण, शिव, देवी आदि सब उसी के नाम हैं। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर अद्वैत, पूर्ण, सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सृष्टिकर्ता, नित्य, अनन्त, अनादि, निराकार, निर्विकार, निर्मल, सत्यचित आनन्द सबका पालन-पोषण करने वाला है। वह न्यायकारी और दयालु है। वह बेअन्त है। इसके गुणों का कोई वर्णन नहीं कर सकता। वह निर्लेप और साक्षी स्वरूप है। संसार की रचना करना इसका स्वभाव है। जैसे सूर्य से सूर्य की किरणें अलग नहीं इसी तरह यह संसार भी इसकी चमक दमक है। जो कुछ संसार में नजर आता है वह सब उसका रूप है। जो सुनने में आता है, उसकी आवाज है। देखता भी आप और सुनता भी आप है यह संसारी जीव-जन्तु सब इसके शरीर का अंग है। इसकी माला के मनके हैं। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर निराकार होते हुए भी साकार रूप में सब जगह प्रकट हो रहा है। जिस तरह सोने के जेवर में सोना, दूध में मक्खन और तिलों में तेल समाया हुआ है इसी तरह परमात्मा भी सब जीवजन्तुओं में आत्मा के रूप में समाया हुआ है। आत्मा, तो हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गाय, मनुष्य शेर, ब्राह्मण, चण्डाल सब की एक है लेकिन अपने-अपने कर्मों के अनुसार सब के मन और शरीर अलग-अलग हैं। वह परमात्मा सब ज्योतियों की ज्योति है लेकिन वह स्वयं प्रकाशमान है। इसकी ज्योति से सूर्य चमकता है। इसके तेज से वायु चलती है। इसकी सत्ता से हम सांस लेते हैं, इसकी शक्ति से मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, प्राण आदि शरीर के अंग चलते हैं। वह सब कर्मों का कारण है उसके हुक्म के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। उसकी सत्ता के बिना न आंख देख १० / मानव जीवन की महानता सकती है, न कान सुन सकते हैं, न जिभ्या स्वाद ले सकती है, न नाक सूच सकती है। जो लोग इसकी को नहीं मानते उनका झूठा अहंकार उनको धोखा दे रहा है। सूर्य पृथ्वी से अनुमानतः नौ करोड़ पच्चीस लाख मील दूरी पर है अगर वह एक फुट भी नीचे हो जाए तो सारी सृष्टि को भस्म कर दे। आकाश की विशालता का कोई अंदाज नहीं लगा सकता। सब देवताओं को प्रकट करने वाला भी परमात्मा ही है।

 

  • वेद शास्त्रों में लिखा है कि इस सूर्य की तरह और भी कई सूर्य हैं, कई सृष्टियां हैं, कई सितारे सूर्य से भी बड़े हैं परन्तु बहुत दूरी पर होने के कारण छोटे प्रतीत होते हैं। यह सब संसार ईश्वर की मर्यादा के अनुसार काम करता है। सूर्य, चांद ठीक समय पर उदय और अस्त होते हैं कोई भी उनको आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता है।
  • कृष्ण, ब्रह्मा, शिव, देवी, सब उसकी शक्तियों के ही नाम है, ईश्वर की कोई खास शक्ल व सूरत नहीं हैं लेकिन हर एक नाम और रूप के पीछे इसकी शक्ति ही काम कर रही है जिस को देखने के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है। फलों में इसका रस है, फूलों में इसकी सुगन्ध है, पहाड़ों में, जंगलों में आबादी में, झीलों में, झरनों के बहाव कलियों की चटक में, शेर की गरज में यानि की सभी जगह इसी की शक्ति काम कर रही है। यह सारा संसार इसका बिराट रूप है। सब जगह इसी का खेल हो रहा है। सब जीव उसकी लीला का अंग हैं और उसके हाथ की कठपुतलियां हैं।
  • परमात्मा की हस्ती को साबित करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जान या प्राण के रूप में उसका तब जगह प्रमाण मिल रहा है । वह सब के हृदय का अंतर्यामी है। वह साक्षी रूप से हमारे कर्मों को देखता है, सब पदार्थों का मालिक है, सब के कर्मों का पूरा-पूरा भुगतान करता है । संसार में जो भी कुछ हो रहा है उसकी आज्ञा के अनुसार हो रहा है । अंधाधुंध नहीं हो रहा है। वह पूर्ण है और उसका न्याय भी पूर्ण है। वह जीव को हर कर्म का फल देता है। उस हजारों आंखों वाले ईश्वर से कुछ छिपा नहीं रहता। कर्म करने में जीव तो स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतंत्र है। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर दयालु है वह जीव को बार-बार शरीर देकर शुभ कर्म करने का अवसर देता है ताकि इंसान आध्यात्मक उन्नति करता हुआ परम पद को प्राप्त कर सके।
  • वह परमात्मा न हमसे दूर है, न दुर्लभ है वह नजदीक सेनजदीक हमारा अपना आप है आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, यह जुदाई केवल द्वैत अथवा अहंकार के कारण है। अगर जीव अपना अहम् त्याग कर उसकी शरण में चला जाता है तो वह उससे अलग नहीं। वह कोई बहुत दूर आकाश में नहीं रहता वह तो आत्मा के रूप में सदा हमारे अंग-संग है। वह ही हमारा माता-पिता, बंधु सखा और सच्चा हमदर्द है वह हमारी अंतर आत्मा व प्रेरणा शक्ति है। अगर हम शुभ कर्मों की प्रेरणा लेना चाहें तो वह हमारा पथ प्रदर्शन करता है, न लेना चाहें तो वह हमारे कर्मों में दखल नहीं देता हमारे जमीर के द्वारा हमें सूचित करता रहता है
  • परमात्मा सब जुवानें को जानता है हर एक की प्रार्थना को सुनता है। और सब की पूरी-पूरी मदद करता है। वह जो कुछ करता है जीव की भलाई के लिए ही करता है। वह मर्यादा पुरुषोत्तम है। उसकी मर्यादा के अनुसार चलना और उसको पाना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।

Gita-Jayanti-2023

भागवत गीता के अनुसार परमात्मा के दर्शन

ईश्वर सारे ब्रह्माण्ड में सब प्रकार के रंग-रूपों में एक से अनेक होकर सबको अपनी बहार लीला दिखला रहा है। केवल देखने वाली आंख की जरूरत है। यह संसार रचना कोई किसी के साथ धोखा या छल नहीं है और यह दुनिया दुःखों का घर भी नहीं है बल्कि मानव जन्म के रूप में ईश्वर की ओर से मनुष्य के लिए एक अनुपम उपहार है। यह संसार ईश्वर के प्रेम का प्रभावशाली परिणाम है। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर के रचे हुए सुन्दर दृश्यों से भली-भांति पता चलता है कि इसका बनाने वाला कितना सुन्दर होगा । ईश्वर हमसे न कभी अलग हुआ है और न कभी अलग होगा । वह सदा हमारे अंग-संग रहता है। वह हमारे दिन-प्रतिदिन के कामों में सदा विद्यामान रहता है। वास्तव में हम सब जगह उससे ही व्यवहार करते हैं लेकिन उसकी पहचान नहीं कर पाते। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर संपूर्ण प्रेम हैं वह केवल हमारा प्रभु और स्वामी यानि हमारा पालन-पोषण करने वाला ही नहीं, किन्तु हमारा आप, मां-बाप, भाई और परम मित्र भी है। वह निराकार होते हुए भी सब रूपों में प्रकट हो रहा है। हम स्वयं उसकी प्रेम लीला का अंग ही तो हैं। वह न दूर है और न दुर्लभ है। वह केवल प्रेम के बहाने ही इस संसार को नित्य उत्तपन्न करता रहता है। और इस तरह हमसे खेल खेलता है जैसे लहरें सागर से अपना मन बहलाती हैं । वह हमारे हृदय की गुफा में बैठा हुआ है, लेकिन हम उसे सदा बाहर ही तलाश करते रहते हैं । यदि बाहर की ओर ईश्वर के दर्शन की इच्छा हो तो पृथ्वी, जलवायु अग्नि, चांद, सूर्य, ऊषा- निषा-माता-पिता, गुरु, महात्मा, गंगा माता, सब प्राणियों और पशु-पक्षियों में उसके दर्शन करो । यह सब भगवान का विराट रूप के अंग ही तो है । जब बच्चा पैदा होता है तो उसे सबसे पहले अपने माता-पिता के रूप में भगवान के दर्शन होते हैं। वे उसका पालन-पोहण करते हैं। मां एक पल के लिये भी बच्चे से अलग होना नहीं चाहती अपने बच्चे के लिए अपना पवित्र और निस्वार्थ प्रेम उंडेल कर बच्चे की रक्षा के लिए मौत से भी भिड़ जाती है। इसलिए मां-बाप की सेवा के द्वारा ईश्वर के दर्शन पा लेना कोई मुश्किल बात नहीं है।

ये सूर्य, चांद सितारे, नदियां, पर्वत, वृक्ष और प्रकृति के अद्भुत दृश्य ईश्वर की मौजूदगी का सबूत दे रहे हैं सब में ईश्वर की ज्योति है। वह हमारे साथ रहता है भाईयों के बीच हमारा भाई, रिश्तेदारों में रिश्तेदार पड़ोसियों में पड़ोसी यानि कि हर दिल में मौजूद हर रंग में हाजिर नाजिर है जो पवित्र आत्माएं ईश्वर के दर्शन कर रही हैं वह हमको भी ज्ञान की रोशनी देकर उसके दर्शन करा सकती हैं। दिव्य ज्ञान चक्षु खोलने पर परमात्मा के दर्शन हर जगह होने लगते हैं वह स्वयं दृष्टा, दृश्य और दर्शन भी है। गुरवाणी कहती है:

  • काहे रे वन खोजन जाई ।
  • सर्व निवासी सदा अलेपा, तोहे संग समाई ।
  • पुष्प मांह ज्यों वास बसत है,
  • मुकुर मांहि ज्यों छायी,
  • जैसे ही हर बसें निरन्तर घट ही खोजो भाई ।
  • बाहर भीतर एकहि जानी, यह गुरुज्ञान बताई ।

कहो नानक विन आपा चीन्हे, मिटे न भ्रम की काई । उपरोक्त कथन के अनुसार परमाष्मा की तलाश घर में ही करनी चाहिए। शरीर में परमात्मा का निवास दसवें द्वार में है। शरीर के नौ द्वारों में हमारा मन भटकता रहता है जब हमारी वृत्ति नौ द्वारों से ऊपर आ जाए तो दसवें द्वार में उसके दिव्य दर्शन होते हैं। परमात्मा के साक्षा- स्कार के लिए कई साधन हैं।

उपनिषदों में इसके चार साधन बताए हैं- –

(१) सत्य

(२) तप

(३) ब्रह्मचर्य (ब्रह्म में विचरना)

(४) उसका समयेक ज्ञान मन, वाणी, कर्म बुद्धि और सत्य के ताल-मेल होने से सत्य की प्राप्ति होती है। आत्मा के दर्शन के लिए सत्य संकल्प, सत्य वाणी और सत्य आचार अनिवार्य है। उस अनन्त, चेतन, शक्ति का दर्शन करने के लिए मन के शीशे की मैल को धोना पड़ता है। सांसारिक कामनाओं से मन मैला हो जाता है, बुद्धि पर अहंकार का परदा पड़ जाता है जिसके कारण ईश्वर के दर्शन नहीं होते। स्वामी राम कृष्ण परमहंस ने विवेकानंद के पूछने पर कि क्या परमात्मा है, उत्तर दिया, कि वह अवश्य है और मैं अब भी उसके दर्शन कर रहा हूं जैसे तुम मेरे सामने बैठे हो। विवेकानंद जी ने कहा, ‘क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हो ?” तो उन्होंने कहा, “हां, अभी बैठो और कर लो।”

गीता के अनुसार ईश्वर की राह में अगर जीव एक कदम उठाता है तो भगवान् उससे मिलने के लिए दस कदम आगे बढ़कर आता है केवल हृदय का शुद्ध और पवित्र होना अनिवार्य है। इस लिए साधक की सादगी, नम्रता, उदारता, प्रेम. समता, क्षमा, दया, अहिंसा, एकांत वास, ध्यान और चिंतन जैसे शुभ गुणों को ग्रहण करना चाहिए। इससे अहंकार, राग व द्वेष खत्म हो जाते हैं दूई का भ्राम मिट जाता है और परमात्मा के सब जगह दर्शन होने लगते हैं ।

Ekadashi Vrat: एकादशी व्रत कितने प्रकार के होते है?

भागवत गीता के अनुसार जीव और मन का स्वरूप

गीता के अनुसार जीव का स्वरूप :-

जिस तरह परमात्मा सच्चिदानन्द है उसी तरह जीव भी सच्चिदानन्द है। भागवत गीता के अनुसार जीव परमात्मा का अंश है। इसलिए वह अजर, अमर और अविनाशी है। जीवात्मा और आत्मा में दृष्टि से थोड़ा सा अन्तर यह है कि जीव जब अपने मन की तरह-तरह की वासनाओं की पूर्ती में ही लगा रहता है तो इसकी सृष्टि सीमित हो जाती है। आत्मा सब जीवों की एक है परन्तु मन, शरीर और कर्म अलग-अलग हैं।’ क्योंकि आम आदमी जो आत्म-ज्ञान से रहित है केवल शरीरों को देखता है इसलिए वे दूसरों को अपने से भिन्न पाकर संसार के द्वैत और धोखे में फंसा रहता है । अपने स्वार्थ के कारण किसी से प्रसन्न होकर राग अथवा किसी से अप्रसन्न होकर द्वेष करता है। अगर किसी खास पुरषार्थ और ईश्वर की अपार कृपा से जीव को आत्माज्ञान या निज अनुभव हो जाए तो वह सच्चिदानन्द और अविनाशी स्वरूप को पहचानकर कृत-कृत हो जाता है।

वेदान्त कहता है कि शुद्ध स्वरूप, चेतन, आत्मा में जब स्फुरण शक्ति जग उठती है यानी जब संकल्प उठता है तो जीव भाव उत्पन्न हो जाता है। मन के झूठे संकल्प के कारण ही जीव को देश, काल, नाम, रूप, शरीर, नदिया, वृक्ष, पर्वत, सागर रूपी दृश्य भारते हैं। ज्ञान की दृष्टि से तो मन इन्द्रियां, जीव, शरीर सब ब्रह्मरूप ही हैं। आत्मा में कुछ न तो बनता है। और न बिगड़ता है। जीव भाव की दशा अहंकार, अज्ञान और आसक्ति के कारण है। जैसे कोई राजा सोते समय मन के संकल्प के द्वारा स्वप्ना बस्था में अपने आपको भिखारी मानकर भीख मांगता फिरे और पैसे टके के लिए दुःख से पीड़ित हो जाए लेकिन बाद में स्वप्न समाप्त होने पर स्वप्न के दृश्यों को झूठा समझकर अपने-आपको निज स्वरूप, यानी राजा समझने लगे तो वह सुख-दुःख से ग्रसित हो जाता है। इसी तरह यह मन सांसारिक वासनाओं और सगे-सम्बन्धियों के मोह के कारण अपने शुद्ध- स्वरूप (आत्मा) को भूलकर अपने-आपको जीव समझ लेने पर दुःख-सुख के अथाह थपेड़ों से निढाल होता रहता है। अज्ञान के कारण ही जीव को बचपन, जवानी, बुढ़ापा, मृत्यु आदि के दृश्य देखने पड़ते हैं और वह शरीर के नाश होने पर अपने-आपको मरा हुआ जानने लगता है। और वासनाओं के कारण दोबारा जीवन पाने की आस में एक बार फिर संसार में घसीटा हुआ आता है । इस तरह का आवागमन तबतक बना रहता है जब तक उसको आत्म-ज्ञान नहीं होता। अगर जीव की अपने स्वरूप यानी आत्म- चिन्तन में मृत्यु हो जाए और उस समय उसे आत्मा के सिवा कुछ न भासे तो वह अपने स्वरूप में विलीन होकर जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है जब तक रस्सी में सांप का भ्रम दूर नहीं होता और यह दृढ़ता बन नहीं जाती कि यह रस्सी ही है, सांप नहीं है (यानी संसार भ्रम मात्र है), तब तक मिथ्या और भ्रांति मात्र संसार और इसके दृश्य (पदार्थ आदि) जीव को डांवाडोल करते रहते हैं !

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गीता के अनुसार मन का स्वरूप :-

जिस तरह परमात्मा की कई विचित्र और अद्भुत शक्तियां हैं। तरह मन भी ईश्वर की एक बहुत बड़ी शक्ति और करामात है । मन भावना मात्र है और भावना फूरने का नाम है और मन का फूरना ही वास्तव में कर्म कहलाता है । जिस कर्म में मन शामिल नहीं होता वह कर्म फलीभूत नहीं होता। अगर कोई कर्म बेदिली से हो तो ऐसे कर्म से पूरा-पूरा लाभ नहीं होता । मन ही जीव है। मन ही शरीर है। मन ही संसार है । जिस प्रकार आत्मा सारे शरीरों को चलाता और सत्ता देता हुआ भी दिखाई नहीं देता, उसी तरह मन भी सारे शरीर को चलाता हुआ और उसमें परिवर्तन करता हुआ दिखाई नहीं देता। लेकिन आत्मा की तरह इसका भी अनुभव किया जा सकता है । मनुष्य की जो हालत होती है इसके मन की सूझ-बुझ और कर्मों के अनुसार होती है। शरीर, बुद्धि, चित्त, अहंकार, वासना, स्मृति, दुःख, सुख, रोग, स्वास्थ्य, विद्या, अविद्या, प्रकृति और माया का प्रभाव सब मन के कारण ही हैं।

 

  • जब मन की वृत्ति किसी वस्तु या कर्म का निश्चय करती है तो इसको बुद्धि कहते हैं ।
  • जब यह वृत्ति आत्मा में अनात्मा का मिथ्या भाव पैदा करती है तो इसे कहते हैं
  • जब यह वृत्ति किसी वस्तु से राग और किसी से द्वेष करती है तो इसका नाम चित्त होता है।
  • वृत्ति का धर्म फूरना है। इस फूरन में जब फल की कामना होती है तो इसे कर्म कहते हैं ।
  • जो कार्य पहले हो चुके हैं उनके संस्कारों को चित्त में स्मरण करने की वृत्ति का नाम स्मृति है ।
  • जिस पदार्थ का संस्कार हृदय में दृढ़ हो और चित्त में बार-बार आए उसे वासना कहते हैं।
  • अत्म-तत्व तो अद्वैत है। इसमें भ्रांति और अज्ञान से दूई भारती है, इसी का नाम अकिद्या है ।
  • शब्द स्पर्श रूप, रस, गंध – जिनको परमात्मा ने रचा है और जिसमें द्वैत का दृढ़ जाल रचा है। उसे प्रकृति कहते हैं।
  • जो सत्य को असत्य और असत्य को सत्य की नाई दिखलाकर जीव को भ्रम में डालती है उसका नाम माया है ।

जब मन में संकल्प और विकल्प उठते हैं तो उस समय जीव रूप हो जाता है । मन भी इसी का मान है। मन जड़ भी नहीं, केतन भी नहीं बल्कि आत्मा और शरीर के बीच जो ग्रन्थी है उसे मन कहते हैं। यह सदा चंचल रहता है कभी शरीर की ओर और कभी ईश्वर की ओर भागता है संसार के सभी दृश्य मन की पैदावार हैं। जिस तरह स्वप्न अवस्था में मन स्वप्न के दृश्य खड़े कर लेता है इसी तरह जागृत अवस्था में भी मन अपना सार खड़ा कर लेता है। जीवन में मनुष्य की जन्म-मरण अवस्था भी मनगढन्त है। क्योंकि आत्मा न कभी मरती है न फिर से पैदा होती है। वह सदा अजर, अमर और अविनाशी है । प्रत्येक मन उतना ही ज्ञान रखता है जितना उसे निज अभ्यास से पता चलता है। वास्तव में मन के निज अनुभव से ही भिन्न-भिन्न सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है । प्रत्येक मनुष्य की सृष्टि समझ या सूझ-बूझ ऐसी होती है जैसे सृष्टि उसका मन रचता है और इसी सृष्टि के अनुसार ही इसको संसार में अच्छे-बुरे, सुखदायी अथवा भयानक दृश्य दिखाई देते हैं । इसी कारण से विश्व में जीव भी अनेक हैं और सृष्टियां भी अनेक हैं । वास्तव में आत्मा तो सदा एकरस रहती है। उसमें न कुछ बनता है और न कुछ बिगड़ता है।

दुनिया की नश्वरता को जानते हुए भी इन्सान का मन दिन-रात मूर्खो की तरह सांसारिक पदार्थों की तृष्णा बढ़ाता रहता है और यह आशा लगाए रखता है कि शायद भिन्न-भिन्न वस्तुओं को इक्ट्ठा करते रहने से उसे आगे चलकर सुख मिलेगा । परन्तु मृगतृष्णा के जल की तरह इसकी प्यास कभी नहीं बुझती । यह मन सांसारिक विषयों की ओर इस तरह झपटता रहता है जैसे कोई चील मांस के टुकड़े को देखकर दूसरी चील पर झपट पड़ती है अज्ञानी मनुष्य का मन सदा अशांत रहता है। एक वस्तु को इतसे तृप्त नहीं होता बल्कि दूसरी चीजों को पाने के लिए सदा बेकरार रहता है और इसकी त्रिष्णा की अग्नि दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है । मानव जीवन ऐसा है जैसे तेज वायु में रखा हुआ दीपक । स्त्री- पुरुष, धन, पदवी आदि सांसारिक सुख का कारण समझे जाते हैं । लेकिन अंत में इनमें से किसी भी पदार्थ से सच्चा सुख मनुष्य को नहीं मिलता । पदार्थों की तृष्णा ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु है।

मन संकल्प-विकल्प का स्थान है । जब संकल्प-विकल्प नहीं रहते तो कोई वस्तु ऐसी नहीं रह जाती जिसे मन का नाम दिया जाए। इसलिए संकल्प-विकल्प ही मन है और इच्छारूपी विचार ही मन है। गहरी निद्रा में जब संकल्प आदि नहीं रहते तो मन और संसार दोनों ही गुम हो जाते हैं इसलिए गहरी निद्रा में सुख मिलता है । जब फिर ख्याल उठने शुरू हो जाते हैं तब फिर संसार और इसके दृश्य सामने खड़े हो जाते हैं । और नाशवान मिथ्या संसार आत्मा को ढक देता है। इसी तरह जब तक संसार दिखाई देता है आत्मा दिखाई नहीं देती है। जब आत्मा के दर्शन हो जाते हैं तो जगत का कहीं पता ही नहीं चलता कि वह कहां चला गया । अज्ञानवश हम वही काम करते हैं जो हमारा मन चाहता है जब तक ज्ञान नहीं होता मन इंसान को सांसारिक भूल भूलैय्यों में डाले रखता है । जब मन अंतरमुख होकर अपने निज स्वरूप में लीन हो जाता है तो अपने मूल को पहचानकर सांसारिक दुःख-सुख से मुक्त हो जाता है । मन पर नियंत्रण पाने के लिए विचार, वैराग्य और अभ्यास ही अचूक उपाय है। मन की शुद्धि के लिए भी जप-तप, निष्काम सेवा और सात्त्विक आहार भी सहायक साधन हैं ।

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गीता के अनुसार जगत की उत्पत्ति

 

गीता के अनुसार वेद ईश्वर की वाणी है वेदों में सृष्टि की उत्पति, स्थिति और निर्वाण के सम्बन्ध में सबकुछ वर्णन किया गया है इसमें यह बताया गया है कि भगवान ने अपनी लीला स्वयं देखने के लिए जब यह संकल्प किया, “एको अहं बहुर्यामा” यानि मैं एक से अनेक हो जाऊं तो संसार की उत्पत्ति हो गई। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर बेअन्त अद्भुत शक्तियों का मालिक है वह सब कुछ कर सकता है। यह संसार परमात्मा का रूप है जैसे आग से निकली चिंगारियां आग का ही एक रूप होती हैं । सूर्य से निकली हुई किरणें सूर्य का ही एक रूप होती है चिन्गारियों के निकलने से सूर्य को कोई कमी पैदा नहीं होती, उसी तरह संसार की उत्पत्ति या प्रलय से आत्मा में कोई कमी नहीं होती । जिस तरह जीव का मन अपने संकल्प से स्वप्नावस्था में अपनी सृष्टि रच लेता है इसी तरह वह सर्वशक्तिमान ईश्वर अपने संकल्प से ब्रह्माण्ड की रचना कर लेता जिस तरह हमारे शरीर के भिन्न-भिन्न अंग हाथ, पांव, टांगें, सिर मिलकर शरीर का रूप धारण कर लेते हैं । इसी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दरिया, सागर, पर्वत, वृक्ष, जीव, पशु-पक्षी सबका मिला-जुला रूप परमात्मा कहलाता है। यानी जो कुछ संसार में दिखाई देता है वह ईश्वर का रूप ही है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि एकता में अनेकता और अनेकता में एकता है ।

गीता के अनुसार संसार की रचना ईश्वर का स्वभाव है वह प्रेम स्वरूप है यह सब जीव-जन्तु उसके प्रकाश की किरणें हैं। जीवन एक लगातार राग है और रागी अपनी मस्ती के जोश में अपने-आप गाता जा रहा है यह उसका प्रेम ही जीवन के रूप में सब जगह अपना प्रकाश फैला रहा है। जीव भी स्वयं है और परमात्मा भी वह ही है। जीवन एक खेल है जो उसकी शक्ति से सब जगह खेला जा रहा है । दृष्टा, दृश्य और दर्शन सबकुछ वही है । जब तक जीव को अपने शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप का ज्ञान रहता है तब तक वह परमात्मा के साथ मिला रहता है और जब उस शुद्ध सत स्वरूप को भूलकर ‘मैं’, ‘मेरा’ में फंस जाता है तो जीव रूप हो जाता है और दुःखों-सुखों के भंवर में घिर जाता है । जब जीव आन्तरिक ज्ञान को पाकर अपनी भूल को दूर कर देता है तो वह जीवन और मृत्यु को एक खेल समझकर ईश्वर की ओर से प्रदान किये गए हर पार्ट को कुशलता, सावधानी और प्रसन्नता से निभाने के योग्य बन जाता है। उसकी सब उदासियां दुःख और चिन्ताएं दूर हो जाती हैं ।

भागवत गीता के अनुसार परमात्मा एक अद्भुत जादूगर है । यह सुन्दर भूल-भूलैय्यावाला संसार एक बड़ा अद्भुत चमत्कार है यह सारी रचना उसने अपने दिलजोई के लिए की है। उसका इरादा किसी को दुःखी करने का कभी नहीं हुआ । यह जीवन कोई सजा नहीं बल्कि प्रभु की एक अनमोल देन है । यह नित नई खुशियां तथा उमंगों को प्रदान करने और सुन्दर दृश्यों को दर्शाने के लिए प्रकट हुआ है। इसमें भांति-भांति के पदार्थ हैं परन्तु उनको भोगने के लिए स्वच्छ बुद्धि की आवश्यकता है । अगर कोई पशु-बुद्धि से उनका सेवन करता है तो जीवन में दुःख पैदा होता है। आग रोटी पकाने के लिए है। यदि हम जलती आग पर हाथ रखेंगे तो तपश जरूर लगेगी बुद्धि का उचित प्रयोग करने से मनुष्य इन सब पदार्थों का आनन्द ले सकता है और ईश्वर के इस नियम को भलीभांति जान लेता है कि दूसरों को दुःख देने से दु:ख मिलेगा और सुख देने से सुख। परमात्मा जिस तरह हमा शरीर में है वैसे ही आत्मा के रूप में वह सभी जीवों में निवास करता है । भागवत गीता के अनुसार इस तरह जब हम सब जगह और सब जीवों में ईश्वर की मौजूदगी का अनुभव करने लगेंगे तो हम दूसरों से वही व्यवहार करेंगे जो हम अपने साथ होने की उनसे आशा करते हैं तो खुशी और आनन्द हर जगह हमारा स्वागत करता रहेगा ।

गीता के अनुसार परमात्मा सच्चिदानन्द है और जीव उसका अंश है तो फिर वह अपने-आप से क्या छुपा कर रखेगा ? इसलिए मनुष्य जीवन में सदैव खुशी, तन्दुरस्ती, दौलत, ज्ञान और आनन्द के अखण्ड भण्डार विद्यमान रहते हैं । केवल सही बुद्धि के प्रयोग से इनका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है। भीखा जी कहते हैं-

भीखा भूखा कोई नहीं, सबकी गठरी लाल । गांठ खोल नहीं देखते, इस विद्य भये कंगाल ||

इसलिए संसार में इन्सान के लिए सब कुछ पर्याप्त है । आवश्यकता है तो केवल इन्सान बनने की । परमात्मा ने स्वर्ग अथवा मोक्ष का दरवाजा भी किसी के लिए बन्द करके नहीं रखा। इसको नर-नारायणी देह दी है। सर्वोत्तम शरीर दिया है मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, शक्ति दी है। शास्त्रों की रचना उत्तम शरीर गृहस्थ फल-फूल और सबकुछ दिए है। जिससे मनुष्य यदि चाहे तो संसार में रहता हुआ, भी स्वर्ग जैसा सुख भोग सकता है और देवताओं के ऊंचे लोकों में भी जा सकता है और चाहे तो अपने पुरुषार्थ से ईश्वर में लीन भी हो सकता है, यह शरीर अनमोल है और मालिक से मिलने का दुर्लभ अवसर है मानव जन्म दुःखी रहने और दूसरों की निंदा, चुगली, इर्षा द्वेष छल, कपट और शत्रुता के लिए नहीं मिला, यदि जीव को दुःख मिलता है तो इसके अपने मन्द कर्मों से ही मिलता है ।

गीता के अनुसार मानव जन्म को पाकर यह विचार करना चाहिए कि यह जगत क्या है, कैसे उत्पन्न हुआ, किसने इसे पैदा किया और हमारा इससे क्या सम्बन्ध है? जैसे स्वप्न के दृश्य थोड़ी देर के लिए पैदा होते हैं और नींद खुल जाने पर मिट जाते हैं इसी तरह मनुष्य को परमात्मा और अपनी हस्ती का ज्ञान होते ही संमार का भ्रम मिट जाता है। जब मनुष्य अपने स्वरूप को जानकर उससे एक मिक हो जाता है तो फिर यह जगत उसके लिए दुःखसुख का कारण नहीं रहता । ज्ञानी के लिए जगत के दृश्य आकाश रूप है। यह जगत केवल अज्ञान से भ्रमित होता है। जो कुछ इस संसार में परमात्मा के सिवा नजर आता है वह सब भ्रांति मात्र है । द्रष्टा और दृश्य का ठीक-ठीक ज्ञान न होना ही बंधन का कारण है। जब तक जीव भाव है तब तक संसार है । जीव भाव से निवृत होना ही वास्तव में मोक्ष है।

 

Ekadashi Kab Hai: एकादशी कब है इस महीने की एकादशी कब है?

 ।। श्री गणेशाय नमः । ।

।। अथ एकादशी व्रत माहात्म्य – भाषा ।।

भारत में धर्म एक महत्वपूर्ण विषय है जो लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हिंदू धर्म में, एकादशी एक महत्वपूर्ण धार्मिक त्योहार है जो हर महीने मनाया जाता है। यह त्योहार बहुत धार्मिक महत्व रखता है और हिंदू धर्म के अनुयायी इस त्योहार को बहुत उत्साह से मनाते हैं। इस ब्लॉग में, हम इस महीने की एकादशी के बारे में बात करेंगे जिसे कब मनाया जाता है और इसका धार्मिक महत्व क्या है। तो चलिए शुरू करते हैं इस महत्वपूर्ण धार्मिक त्योहार के बारे में जानना।

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एकादशी क्या होती है? एक संक्षेप में जानें

एकादशी, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण तिथि है जो हर माह में दो बार प्रतिष्ठित होती है। एकादशी का शब्दिक अर्थ होता है “ग्यारह” और इसे हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गणना किया जाता है। यह तिथि हिन्दू धर्म में व्रत और पूजा का महत्वपूर्ण दिन मानी जाती है।

एकादशी हिन्दू संस्कृति में प्राचीनतम और पवित्र व्रतों में से एक है। इस दिन विशेष आहार, विश्राम, और ध्यान के साथ व्रत रखा जाता है। यह व्रत अपने मन और शरीर को शुद्ध करने का एक माध्यम माना जाता है और इसे करने से धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है।

एकादशी को विभिन्न नामों से भी जाना जाता है, जैसे वैष्णवों में “एकादशी तिथि”, शैवों में “प्रदोष व्रत” और सौरभानंदी संप्रदाय में “मोहिनी एकादशी”।

एकादशी का महत्व धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से आवश्यक होता है।

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कौन सी एकादशी इस महीने है?

Ekadashi Kab Hai:  सूतजी बोले- बारह महीनों में कुल चौबीस और अधिक मास (लौंद) में दो एकादशी अथिक होती हैं- इस तरह से २६ एकादशियाँ होती हैं, उनके नाम मैं कहता हूँ, आप सावधानी से सुनिये

  • उत्पन्ना एकादशी
  • मोक्षदा एकादशी
  • सफला एकादशी
  • पुत्रदा एकादशी
  • षटतिला एकादशी
  • जया एकादशी
  • विजया एकादशी
  • आमलकी एकादशी
  • पापमोचनी एकादशी
  • कामदा एकादशी
  • वरुथिनी एकादशी
  • मोहिनी एकादशी
  • अपरा एकादशी
  • निर्जला एकादशी
  • योगिनी एकादशी
  • देवशयनी एकादशी (वैष्णव)
  • कामिका एकादशी
  • पवित्रा एकादशी
  • अजा एकादशी
  • पदमा एकादशी
  • इन्दिरा एकादशी
  • पापांकुशा एकादशी (वैष्णव)
  • रमा एकादशी
ये १२ महीनों की २४ एकादशियों के नाम हैं। अधिक मास में पदिमनी और परमा ये दो एकादशियां होती हैं, ये सब नाम के अनुसार फल देने हैं वाली हैं इनकी कथा सुनने से इनके फलों का अच्छी तरह ज्ञान हो जाएगा। यदि एकादशी का व्रत तथा उद्यापन की शक्ति न हो तो इनके नाम का कीर्तन करने से ही शीघ्र फल प्राप्ति हो जाएगी।

‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश मन्त्र का जाप करें।

यह तिथि मास में दो बार आती है। एक पूर्णिमा होने पर और दूसरी अमावस्या होने पर। पूर्णिमा से आगे आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के उपरान्त आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं।

एकादशी व्रत में पारण का विशेष महत्व है। मान्यता है कि एकादशी व्रत का पारण अगर विधिवत न किया जाए तो व्रत का पूर्ण लाभ नहीं मिलता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि को किया जाता है।

एकादशी व्रत का एक नियम यह भी है कि एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चावल खाने से व्यक्ति अगले जन्म में सरीसृप का रूप धारण कर लेता है । एकादशी व्रत के पारण पर चावल जरूर खाना चाहिए. एकादशी व्रत के दिन चावल खाना मना होता है, लेकिन द्वादशी के दिन चावल खाना उत्तम माना जाता है ।

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एकादशी का महत्व

एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को समर्पित है। इस व्रत को करने से कई लाभ होते हैं। इस व्रत से पापों का नाश होता है, मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं, और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

एकादशी व्रत का विधि-विधान

एकादशी व्रत करने के लिए सबसे पहले द्वादशी के दिन रात्रि में व्रत का संकल्प लिया जाता है। इसके बाद एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करके भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन केवल फलाहार किया जाता है। द्वादशी के दिन सुबह पूजा-अर्चना करके व्रत का पारण किया जाता है।

एकादशी व्रत के नियम

एकादशी व्रत के कुछ नियम हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए:

  • एकादशी के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
  • इस दिन क्रोध, लोभ, मोह आदि बुरे विचारों से बचना चाहिए।
  • इस दिन कड़वी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
  • एकादशी के दिन उपवास रखना चाहिए और भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
  • एकादशी के दिन रात्रि में भगवान विष्णु की कथा सुननी चाहिए।
  • एकादशी व्रत का पारण अगले दिन सूर्योदय के बाद करना चाहिए।
  • पारण के समय तुलसी के पत्ते खा कर करना चाहिए।

एकादशी व्रत के प्रभाव

एकादशी व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन होते हैं। इस व्रत से व्यक्ति को निम्नलिखित लाभ होते हैं:

  • पापों का नाश होता है।
  • मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं।
  • मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  • आरोग्य लाभ होता है।
  • धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
  • सुख-शांति का वास होता है।