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Gita Jayanti: भागवत गीता के अनुसार ईश्वर का उपदेश सार

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Gita Jayanti: भागवत गीता के अनुसार ईश्वर का उपदेश सार

भागवत गीता का अमर उपदेश
• रात दिन और हर घड़ी बाकी है जब तक जिन्दगी फ़र्ज़ पूरा करने में इन्साँ न घबराए कभी
• यह न लाए फ़िक्र दिल में कल को क्या अंजाम है फर्ज अदा करता रहे इस का इतना काम है
• जिस्म फानी है तो क्या राम रूह मर सकती नहीं आत्मा का कोई शक्ति नाश कर सकती नहीं
• धर्मं पालन के लिये ही इन्सों को मिलता है शरीर धर्म युद्ध से डरते नहीं जो हैं सच्चे शूरवीर
• जिस की नज़रों में खरे हैं सब कोई खोटा नहीं राजा से लेकर रंक तक कोई बड़ा छोटा नहीं
• भूल जाए अपने को भी जो परमात्मा के ध्यान में गीत जो गाता रहे हरदम उसी की शान में
• ईश्वर के वास्ते ही काम सब करता है जो और उस को जान कर बुरे कर्म से डरता है जो
• भक्त कहते हैं उसे भगवान का प्यारा है वो इस कदर प्यारा कि उसकी आँख का तारा है वोपरमात्मा

Geeta-Jayanti

 

Gita Jayanti 2023

  • Geeta Jayant :  22 दिसंबर 2023 

ईश्वर

भागवत गीता के अनुसार ईश्वर एक है परन्तु उसे कई नामों में पुकारा जाता है। ब्रह्म, आत्मा ख़ुदा, परमात्मा, गाड, वाहेगुरु नारायण, राम, कृष्ण, शिव, देवी आदि सब उसी के नाम हैं। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर अद्वैत, पूर्ण, सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सृष्टिकर्ता, नित्य, अनन्त, अनादि, निराकार, निर्विकार, निर्मल, सत्यचित आनन्द सबका पालन-पोषण करने वाला है। वह न्यायकारी और दयालु है। वह बेअन्त है। इसके गुणों का कोई वर्णन नहीं कर सकता। वह निर्लेप और साक्षी स्वरूप है। संसार की रचना करना इसका स्वभाव है। जैसे सूर्य से सूर्य की किरणें अलग नहीं इसी तरह यह संसार भी इसकी चमक दमक है। जो कुछ संसार में नजर आता है वह सब उसका रूप है। जो सुनने में आता है, उसकी आवाज है। देखता भी आप और सुनता भी आप है यह संसारी जीव-जन्तु सब इसके शरीर का अंग है। इसकी माला के मनके हैं। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर निराकार होते हुए भी साकार रूप में सब जगह प्रकट हो रहा है। जिस तरह सोने के जेवर में सोना, दूध में मक्खन और तिलों में तेल समाया हुआ है इसी तरह परमात्मा भी सब जीवजन्तुओं में आत्मा के रूप में समाया हुआ है। आत्मा, तो हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गाय, मनुष्य शेर, ब्राह्मण, चण्डाल सब की एक है लेकिन अपने-अपने कर्मों के अनुसार सब के मन और शरीर अलग-अलग हैं। वह परमात्मा सब ज्योतियों की ज्योति है लेकिन वह स्वयं प्रकाशमान है। इसकी ज्योति से सूर्य चमकता है। इसके तेज से वायु चलती है। इसकी सत्ता से हम सांस लेते हैं, इसकी शक्ति से मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, प्राण आदि शरीर के अंग चलते हैं। वह सब कर्मों का कारण है उसके हुक्म के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। उसकी सत्ता के बिना न आंख देख १० / मानव जीवन की महानता सकती है, न कान सुन सकते हैं, न जिभ्या स्वाद ले सकती है, न नाक सूच सकती है। जो लोग इसकी को नहीं मानते उनका झूठा अहंकार उनको धोखा दे रहा है। सूर्य पृथ्वी से अनुमानतः नौ करोड़ पच्चीस लाख मील दूरी पर है अगर वह एक फुट भी नीचे हो जाए तो सारी सृष्टि को भस्म कर दे। आकाश की विशालता का कोई अंदाज नहीं लगा सकता। सब देवताओं को प्रकट करने वाला भी परमात्मा ही है।

 

  • वेद शास्त्रों में लिखा है कि इस सूर्य की तरह और भी कई सूर्य हैं, कई सृष्टियां हैं, कई सितारे सूर्य से भी बड़े हैं परन्तु बहुत दूरी पर होने के कारण छोटे प्रतीत होते हैं। यह सब संसार ईश्वर की मर्यादा के अनुसार काम करता है। सूर्य, चांद ठीक समय पर उदय और अस्त होते हैं कोई भी उनको आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता है।
  • कृष्ण, ब्रह्मा, शिव, देवी, सब उसकी शक्तियों के ही नाम है, ईश्वर की कोई खास शक्ल व सूरत नहीं हैं लेकिन हर एक नाम और रूप के पीछे इसकी शक्ति ही काम कर रही है जिस को देखने के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है। फलों में इसका रस है, फूलों में इसकी सुगन्ध है, पहाड़ों में, जंगलों में आबादी में, झीलों में, झरनों के बहाव कलियों की चटक में, शेर की गरज में यानि की सभी जगह इसी की शक्ति काम कर रही है। यह सारा संसार इसका बिराट रूप है। सब जगह इसी का खेल हो रहा है। सब जीव उसकी लीला का अंग हैं और उसके हाथ की कठपुतलियां हैं।
  • परमात्मा की हस्ती को साबित करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जान या प्राण के रूप में उसका तब जगह प्रमाण मिल रहा है । वह सब के हृदय का अंतर्यामी है। वह साक्षी रूप से हमारे कर्मों को देखता है, सब पदार्थों का मालिक है, सब के कर्मों का पूरा-पूरा भुगतान करता है । संसार में जो भी कुछ हो रहा है उसकी आज्ञा के अनुसार हो रहा है । अंधाधुंध नहीं हो रहा है। वह पूर्ण है और उसका न्याय भी पूर्ण है। वह जीव को हर कर्म का फल देता है। उस हजारों आंखों वाले ईश्वर से कुछ छिपा नहीं रहता। कर्म करने में जीव तो स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतंत्र है। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर दयालु है वह जीव को बार-बार शरीर देकर शुभ कर्म करने का अवसर देता है ताकि इंसान आध्यात्मक उन्नति करता हुआ परम पद को प्राप्त कर सके।
  • वह परमात्मा न हमसे दूर है, न दुर्लभ है वह नजदीक सेनजदीक हमारा अपना आप है आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, यह जुदाई केवल द्वैत अथवा अहंकार के कारण है। अगर जीव अपना अहम् त्याग कर उसकी शरण में चला जाता है तो वह उससे अलग नहीं। वह कोई बहुत दूर आकाश में नहीं रहता वह तो आत्मा के रूप में सदा हमारे अंग-संग है। वह ही हमारा माता-पिता, बंधु सखा और सच्चा हमदर्द है वह हमारी अंतर आत्मा व प्रेरणा शक्ति है। अगर हम शुभ कर्मों की प्रेरणा लेना चाहें तो वह हमारा पथ प्रदर्शन करता है, न लेना चाहें तो वह हमारे कर्मों में दखल नहीं देता हमारे जमीर के द्वारा हमें सूचित करता रहता है
  • परमात्मा सब जुवानें को जानता है हर एक की प्रार्थना को सुनता है। और सब की पूरी-पूरी मदद करता है। वह जो कुछ करता है जीव की भलाई के लिए ही करता है। वह मर्यादा पुरुषोत्तम है। उसकी मर्यादा के अनुसार चलना और उसको पाना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।

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भागवत गीता के अनुसार परमात्मा के दर्शन

ईश्वर सारे ब्रह्माण्ड में सब प्रकार के रंग-रूपों में एक से अनेक होकर सबको अपनी बहार लीला दिखला रहा है। केवल देखने वाली आंख की जरूरत है। यह संसार रचना कोई किसी के साथ धोखा या छल नहीं है और यह दुनिया दुःखों का घर भी नहीं है बल्कि मानव जन्म के रूप में ईश्वर की ओर से मनुष्य के लिए एक अनुपम उपहार है। यह संसार ईश्वर के प्रेम का प्रभावशाली परिणाम है। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर के रचे हुए सुन्दर दृश्यों से भली-भांति पता चलता है कि इसका बनाने वाला कितना सुन्दर होगा । ईश्वर हमसे न कभी अलग हुआ है और न कभी अलग होगा । वह सदा हमारे अंग-संग रहता है। वह हमारे दिन-प्रतिदिन के कामों में सदा विद्यामान रहता है। वास्तव में हम सब जगह उससे ही व्यवहार करते हैं लेकिन उसकी पहचान नहीं कर पाते। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर संपूर्ण प्रेम हैं वह केवल हमारा प्रभु और स्वामी यानि हमारा पालन-पोषण करने वाला ही नहीं, किन्तु हमारा आप, मां-बाप, भाई और परम मित्र भी है। वह निराकार होते हुए भी सब रूपों में प्रकट हो रहा है। हम स्वयं उसकी प्रेम लीला का अंग ही तो हैं। वह न दूर है और न दुर्लभ है। वह केवल प्रेम के बहाने ही इस संसार को नित्य उत्तपन्न करता रहता है। और इस तरह हमसे खेल खेलता है जैसे लहरें सागर से अपना मन बहलाती हैं । वह हमारे हृदय की गुफा में बैठा हुआ है, लेकिन हम उसे सदा बाहर ही तलाश करते रहते हैं । यदि बाहर की ओर ईश्वर के दर्शन की इच्छा हो तो पृथ्वी, जलवायु अग्नि, चांद, सूर्य, ऊषा- निषा-माता-पिता, गुरु, महात्मा, गंगा माता, सब प्राणियों और पशु-पक्षियों में उसके दर्शन करो । यह सब भगवान का विराट रूप के अंग ही तो है । जब बच्चा पैदा होता है तो उसे सबसे पहले अपने माता-पिता के रूप में भगवान के दर्शन होते हैं। वे उसका पालन-पोहण करते हैं। मां एक पल के लिये भी बच्चे से अलग होना नहीं चाहती अपने बच्चे के लिए अपना पवित्र और निस्वार्थ प्रेम उंडेल कर बच्चे की रक्षा के लिए मौत से भी भिड़ जाती है। इसलिए मां-बाप की सेवा के द्वारा ईश्वर के दर्शन पा लेना कोई मुश्किल बात नहीं है।

ये सूर्य, चांद सितारे, नदियां, पर्वत, वृक्ष और प्रकृति के अद्भुत दृश्य ईश्वर की मौजूदगी का सबूत दे रहे हैं सब में ईश्वर की ज्योति है। वह हमारे साथ रहता है भाईयों के बीच हमारा भाई, रिश्तेदारों में रिश्तेदार पड़ोसियों में पड़ोसी यानि कि हर दिल में मौजूद हर रंग में हाजिर नाजिर है जो पवित्र आत्माएं ईश्वर के दर्शन कर रही हैं वह हमको भी ज्ञान की रोशनी देकर उसके दर्शन करा सकती हैं। दिव्य ज्ञान चक्षु खोलने पर परमात्मा के दर्शन हर जगह होने लगते हैं वह स्वयं दृष्टा, दृश्य और दर्शन भी है। गुरवाणी कहती है:

  • काहे रे वन खोजन जाई ।
  • सर्व निवासी सदा अलेपा, तोहे संग समाई ।
  • पुष्प मांह ज्यों वास बसत है,
  • मुकुर मांहि ज्यों छायी,
  • जैसे ही हर बसें निरन्तर घट ही खोजो भाई ।
  • बाहर भीतर एकहि जानी, यह गुरुज्ञान बताई ।

कहो नानक विन आपा चीन्हे, मिटे न भ्रम की काई । उपरोक्त कथन के अनुसार परमाष्मा की तलाश घर में ही करनी चाहिए। शरीर में परमात्मा का निवास दसवें द्वार में है। शरीर के नौ द्वारों में हमारा मन भटकता रहता है जब हमारी वृत्ति नौ द्वारों से ऊपर आ जाए तो दसवें द्वार में उसके दिव्य दर्शन होते हैं। परमात्मा के साक्षा- स्कार के लिए कई साधन हैं।

उपनिषदों में इसके चार साधन बताए हैं- –

(१) सत्य

(२) तप

(३) ब्रह्मचर्य (ब्रह्म में विचरना)

(४) उसका समयेक ज्ञान मन, वाणी, कर्म बुद्धि और सत्य के ताल-मेल होने से सत्य की प्राप्ति होती है। आत्मा के दर्शन के लिए सत्य संकल्प, सत्य वाणी और सत्य आचार अनिवार्य है। उस अनन्त, चेतन, शक्ति का दर्शन करने के लिए मन के शीशे की मैल को धोना पड़ता है। सांसारिक कामनाओं से मन मैला हो जाता है, बुद्धि पर अहंकार का परदा पड़ जाता है जिसके कारण ईश्वर के दर्शन नहीं होते। स्वामी राम कृष्ण परमहंस ने विवेकानंद के पूछने पर कि क्या परमात्मा है, उत्तर दिया, कि वह अवश्य है और मैं अब भी उसके दर्शन कर रहा हूं जैसे तुम मेरे सामने बैठे हो। विवेकानंद जी ने कहा, ‘क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हो ?” तो उन्होंने कहा, “हां, अभी बैठो और कर लो।”

गीता के अनुसार ईश्वर की राह में अगर जीव एक कदम उठाता है तो भगवान् उससे मिलने के लिए दस कदम आगे बढ़कर आता है केवल हृदय का शुद्ध और पवित्र होना अनिवार्य है। इस लिए साधक की सादगी, नम्रता, उदारता, प्रेम. समता, क्षमा, दया, अहिंसा, एकांत वास, ध्यान और चिंतन जैसे शुभ गुणों को ग्रहण करना चाहिए। इससे अहंकार, राग व द्वेष खत्म हो जाते हैं दूई का भ्राम मिट जाता है और परमात्मा के सब जगह दर्शन होने लगते हैं ।

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भागवत गीता के अनुसार जीव और मन का स्वरूप

गीता के अनुसार जीव का स्वरूप :-

जिस तरह परमात्मा सच्चिदानन्द है उसी तरह जीव भी सच्चिदानन्द है। भागवत गीता के अनुसार जीव परमात्मा का अंश है। इसलिए वह अजर, अमर और अविनाशी है। जीवात्मा और आत्मा में दृष्टि से थोड़ा सा अन्तर यह है कि जीव जब अपने मन की तरह-तरह की वासनाओं की पूर्ती में ही लगा रहता है तो इसकी सृष्टि सीमित हो जाती है। आत्मा सब जीवों की एक है परन्तु मन, शरीर और कर्म अलग-अलग हैं।’ क्योंकि आम आदमी जो आत्म-ज्ञान से रहित है केवल शरीरों को देखता है इसलिए वे दूसरों को अपने से भिन्न पाकर संसार के द्वैत और धोखे में फंसा रहता है । अपने स्वार्थ के कारण किसी से प्रसन्न होकर राग अथवा किसी से अप्रसन्न होकर द्वेष करता है। अगर किसी खास पुरषार्थ और ईश्वर की अपार कृपा से जीव को आत्माज्ञान या निज अनुभव हो जाए तो वह सच्चिदानन्द और अविनाशी स्वरूप को पहचानकर कृत-कृत हो जाता है।

वेदान्त कहता है कि शुद्ध स्वरूप, चेतन, आत्मा में जब स्फुरण शक्ति जग उठती है यानी जब संकल्प उठता है तो जीव भाव उत्पन्न हो जाता है। मन के झूठे संकल्प के कारण ही जीव को देश, काल, नाम, रूप, शरीर, नदिया, वृक्ष, पर्वत, सागर रूपी दृश्य भारते हैं। ज्ञान की दृष्टि से तो मन इन्द्रियां, जीव, शरीर सब ब्रह्मरूप ही हैं। आत्मा में कुछ न तो बनता है। और न बिगड़ता है। जीव भाव की दशा अहंकार, अज्ञान और आसक्ति के कारण है। जैसे कोई राजा सोते समय मन के संकल्प के द्वारा स्वप्ना बस्था में अपने आपको भिखारी मानकर भीख मांगता फिरे और पैसे टके के लिए दुःख से पीड़ित हो जाए लेकिन बाद में स्वप्न समाप्त होने पर स्वप्न के दृश्यों को झूठा समझकर अपने-आपको निज स्वरूप, यानी राजा समझने लगे तो वह सुख-दुःख से ग्रसित हो जाता है। इसी तरह यह मन सांसारिक वासनाओं और सगे-सम्बन्धियों के मोह के कारण अपने शुद्ध- स्वरूप (आत्मा) को भूलकर अपने-आपको जीव समझ लेने पर दुःख-सुख के अथाह थपेड़ों से निढाल होता रहता है। अज्ञान के कारण ही जीव को बचपन, जवानी, बुढ़ापा, मृत्यु आदि के दृश्य देखने पड़ते हैं और वह शरीर के नाश होने पर अपने-आपको मरा हुआ जानने लगता है। और वासनाओं के कारण दोबारा जीवन पाने की आस में एक बार फिर संसार में घसीटा हुआ आता है । इस तरह का आवागमन तबतक बना रहता है जब तक उसको आत्म-ज्ञान नहीं होता। अगर जीव की अपने स्वरूप यानी आत्म- चिन्तन में मृत्यु हो जाए और उस समय उसे आत्मा के सिवा कुछ न भासे तो वह अपने स्वरूप में विलीन होकर जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है जब तक रस्सी में सांप का भ्रम दूर नहीं होता और यह दृढ़ता बन नहीं जाती कि यह रस्सी ही है, सांप नहीं है (यानी संसार भ्रम मात्र है), तब तक मिथ्या और भ्रांति मात्र संसार और इसके दृश्य (पदार्थ आदि) जीव को डांवाडोल करते रहते हैं !

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गीता के अनुसार मन का स्वरूप :-

जिस तरह परमात्मा की कई विचित्र और अद्भुत शक्तियां हैं। तरह मन भी ईश्वर की एक बहुत बड़ी शक्ति और करामात है । मन भावना मात्र है और भावना फूरने का नाम है और मन का फूरना ही वास्तव में कर्म कहलाता है । जिस कर्म में मन शामिल नहीं होता वह कर्म फलीभूत नहीं होता। अगर कोई कर्म बेदिली से हो तो ऐसे कर्म से पूरा-पूरा लाभ नहीं होता । मन ही जीव है। मन ही शरीर है। मन ही संसार है । जिस प्रकार आत्मा सारे शरीरों को चलाता और सत्ता देता हुआ भी दिखाई नहीं देता, उसी तरह मन भी सारे शरीर को चलाता हुआ और उसमें परिवर्तन करता हुआ दिखाई नहीं देता। लेकिन आत्मा की तरह इसका भी अनुभव किया जा सकता है । मनुष्य की जो हालत होती है इसके मन की सूझ-बुझ और कर्मों के अनुसार होती है। शरीर, बुद्धि, चित्त, अहंकार, वासना, स्मृति, दुःख, सुख, रोग, स्वास्थ्य, विद्या, अविद्या, प्रकृति और माया का प्रभाव सब मन के कारण ही हैं।

 

  • जब मन की वृत्ति किसी वस्तु या कर्म का निश्चय करती है तो इसको बुद्धि कहते हैं ।
  • जब यह वृत्ति आत्मा में अनात्मा का मिथ्या भाव पैदा करती है तो इसे कहते हैं
  • जब यह वृत्ति किसी वस्तु से राग और किसी से द्वेष करती है तो इसका नाम चित्त होता है।
  • वृत्ति का धर्म फूरना है। इस फूरन में जब फल की कामना होती है तो इसे कर्म कहते हैं ।
  • जो कार्य पहले हो चुके हैं उनके संस्कारों को चित्त में स्मरण करने की वृत्ति का नाम स्मृति है ।
  • जिस पदार्थ का संस्कार हृदय में दृढ़ हो और चित्त में बार-बार आए उसे वासना कहते हैं।
  • अत्म-तत्व तो अद्वैत है। इसमें भ्रांति और अज्ञान से दूई भारती है, इसी का नाम अकिद्या है ।
  • शब्द स्पर्श रूप, रस, गंध – जिनको परमात्मा ने रचा है और जिसमें द्वैत का दृढ़ जाल रचा है। उसे प्रकृति कहते हैं।
  • जो सत्य को असत्य और असत्य को सत्य की नाई दिखलाकर जीव को भ्रम में डालती है उसका नाम माया है ।

जब मन में संकल्प और विकल्प उठते हैं तो उस समय जीव रूप हो जाता है । मन भी इसी का मान है। मन जड़ भी नहीं, केतन भी नहीं बल्कि आत्मा और शरीर के बीच जो ग्रन्थी है उसे मन कहते हैं। यह सदा चंचल रहता है कभी शरीर की ओर और कभी ईश्वर की ओर भागता है संसार के सभी दृश्य मन की पैदावार हैं। जिस तरह स्वप्न अवस्था में मन स्वप्न के दृश्य खड़े कर लेता है इसी तरह जागृत अवस्था में भी मन अपना सार खड़ा कर लेता है। जीवन में मनुष्य की जन्म-मरण अवस्था भी मनगढन्त है। क्योंकि आत्मा न कभी मरती है न फिर से पैदा होती है। वह सदा अजर, अमर और अविनाशी है । प्रत्येक मन उतना ही ज्ञान रखता है जितना उसे निज अभ्यास से पता चलता है। वास्तव में मन के निज अनुभव से ही भिन्न-भिन्न सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है । प्रत्येक मनुष्य की सृष्टि समझ या सूझ-बूझ ऐसी होती है जैसे सृष्टि उसका मन रचता है और इसी सृष्टि के अनुसार ही इसको संसार में अच्छे-बुरे, सुखदायी अथवा भयानक दृश्य दिखाई देते हैं । इसी कारण से विश्व में जीव भी अनेक हैं और सृष्टियां भी अनेक हैं । वास्तव में आत्मा तो सदा एकरस रहती है। उसमें न कुछ बनता है और न कुछ बिगड़ता है।

दुनिया की नश्वरता को जानते हुए भी इन्सान का मन दिन-रात मूर्खो की तरह सांसारिक पदार्थों की तृष्णा बढ़ाता रहता है और यह आशा लगाए रखता है कि शायद भिन्न-भिन्न वस्तुओं को इक्ट्ठा करते रहने से उसे आगे चलकर सुख मिलेगा । परन्तु मृगतृष्णा के जल की तरह इसकी प्यास कभी नहीं बुझती । यह मन सांसारिक विषयों की ओर इस तरह झपटता रहता है जैसे कोई चील मांस के टुकड़े को देखकर दूसरी चील पर झपट पड़ती है अज्ञानी मनुष्य का मन सदा अशांत रहता है। एक वस्तु को इतसे तृप्त नहीं होता बल्कि दूसरी चीजों को पाने के लिए सदा बेकरार रहता है और इसकी त्रिष्णा की अग्नि दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है । मानव जीवन ऐसा है जैसे तेज वायु में रखा हुआ दीपक । स्त्री- पुरुष, धन, पदवी आदि सांसारिक सुख का कारण समझे जाते हैं । लेकिन अंत में इनमें से किसी भी पदार्थ से सच्चा सुख मनुष्य को नहीं मिलता । पदार्थों की तृष्णा ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु है।

मन संकल्प-विकल्प का स्थान है । जब संकल्प-विकल्प नहीं रहते तो कोई वस्तु ऐसी नहीं रह जाती जिसे मन का नाम दिया जाए। इसलिए संकल्प-विकल्प ही मन है और इच्छारूपी विचार ही मन है। गहरी निद्रा में जब संकल्प आदि नहीं रहते तो मन और संसार दोनों ही गुम हो जाते हैं इसलिए गहरी निद्रा में सुख मिलता है । जब फिर ख्याल उठने शुरू हो जाते हैं तब फिर संसार और इसके दृश्य सामने खड़े हो जाते हैं । और नाशवान मिथ्या संसार आत्मा को ढक देता है। इसी तरह जब तक संसार दिखाई देता है आत्मा दिखाई नहीं देती है। जब आत्मा के दर्शन हो जाते हैं तो जगत का कहीं पता ही नहीं चलता कि वह कहां चला गया । अज्ञानवश हम वही काम करते हैं जो हमारा मन चाहता है जब तक ज्ञान नहीं होता मन इंसान को सांसारिक भूल भूलैय्यों में डाले रखता है । जब मन अंतरमुख होकर अपने निज स्वरूप में लीन हो जाता है तो अपने मूल को पहचानकर सांसारिक दुःख-सुख से मुक्त हो जाता है । मन पर नियंत्रण पाने के लिए विचार, वैराग्य और अभ्यास ही अचूक उपाय है। मन की शुद्धि के लिए भी जप-तप, निष्काम सेवा और सात्त्विक आहार भी सहायक साधन हैं ।

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गीता के अनुसार जगत की उत्पत्ति

 

गीता के अनुसार वेद ईश्वर की वाणी है वेदों में सृष्टि की उत्पति, स्थिति और निर्वाण के सम्बन्ध में सबकुछ वर्णन किया गया है इसमें यह बताया गया है कि भगवान ने अपनी लीला स्वयं देखने के लिए जब यह संकल्प किया, “एको अहं बहुर्यामा” यानि मैं एक से अनेक हो जाऊं तो संसार की उत्पत्ति हो गई। भागवत गीता के अनुसार ईश्वर बेअन्त अद्भुत शक्तियों का मालिक है वह सब कुछ कर सकता है। यह संसार परमात्मा का रूप है जैसे आग से निकली चिंगारियां आग का ही एक रूप होती हैं । सूर्य से निकली हुई किरणें सूर्य का ही एक रूप होती है चिन्गारियों के निकलने से सूर्य को कोई कमी पैदा नहीं होती, उसी तरह संसार की उत्पत्ति या प्रलय से आत्मा में कोई कमी नहीं होती । जिस तरह जीव का मन अपने संकल्प से स्वप्नावस्था में अपनी सृष्टि रच लेता है इसी तरह वह सर्वशक्तिमान ईश्वर अपने संकल्प से ब्रह्माण्ड की रचना कर लेता जिस तरह हमारे शरीर के भिन्न-भिन्न अंग हाथ, पांव, टांगें, सिर मिलकर शरीर का रूप धारण कर लेते हैं । इसी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दरिया, सागर, पर्वत, वृक्ष, जीव, पशु-पक्षी सबका मिला-जुला रूप परमात्मा कहलाता है। यानी जो कुछ संसार में दिखाई देता है वह ईश्वर का रूप ही है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि एकता में अनेकता और अनेकता में एकता है ।

गीता के अनुसार संसार की रचना ईश्वर का स्वभाव है वह प्रेम स्वरूप है यह सब जीव-जन्तु उसके प्रकाश की किरणें हैं। जीवन एक लगातार राग है और रागी अपनी मस्ती के जोश में अपने-आप गाता जा रहा है यह उसका प्रेम ही जीवन के रूप में सब जगह अपना प्रकाश फैला रहा है। जीव भी स्वयं है और परमात्मा भी वह ही है। जीवन एक खेल है जो उसकी शक्ति से सब जगह खेला जा रहा है । दृष्टा, दृश्य और दर्शन सबकुछ वही है । जब तक जीव को अपने शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप का ज्ञान रहता है तब तक वह परमात्मा के साथ मिला रहता है और जब उस शुद्ध सत स्वरूप को भूलकर ‘मैं’, ‘मेरा’ में फंस जाता है तो जीव रूप हो जाता है और दुःखों-सुखों के भंवर में घिर जाता है । जब जीव आन्तरिक ज्ञान को पाकर अपनी भूल को दूर कर देता है तो वह जीवन और मृत्यु को एक खेल समझकर ईश्वर की ओर से प्रदान किये गए हर पार्ट को कुशलता, सावधानी और प्रसन्नता से निभाने के योग्य बन जाता है। उसकी सब उदासियां दुःख और चिन्ताएं दूर हो जाती हैं ।

भागवत गीता के अनुसार परमात्मा एक अद्भुत जादूगर है । यह सुन्दर भूल-भूलैय्यावाला संसार एक बड़ा अद्भुत चमत्कार है यह सारी रचना उसने अपने दिलजोई के लिए की है। उसका इरादा किसी को दुःखी करने का कभी नहीं हुआ । यह जीवन कोई सजा नहीं बल्कि प्रभु की एक अनमोल देन है । यह नित नई खुशियां तथा उमंगों को प्रदान करने और सुन्दर दृश्यों को दर्शाने के लिए प्रकट हुआ है। इसमें भांति-भांति के पदार्थ हैं परन्तु उनको भोगने के लिए स्वच्छ बुद्धि की आवश्यकता है । अगर कोई पशु-बुद्धि से उनका सेवन करता है तो जीवन में दुःख पैदा होता है। आग रोटी पकाने के लिए है। यदि हम जलती आग पर हाथ रखेंगे तो तपश जरूर लगेगी बुद्धि का उचित प्रयोग करने से मनुष्य इन सब पदार्थों का आनन्द ले सकता है और ईश्वर के इस नियम को भलीभांति जान लेता है कि दूसरों को दुःख देने से दु:ख मिलेगा और सुख देने से सुख। परमात्मा जिस तरह हमा शरीर में है वैसे ही आत्मा के रूप में वह सभी जीवों में निवास करता है । भागवत गीता के अनुसार इस तरह जब हम सब जगह और सब जीवों में ईश्वर की मौजूदगी का अनुभव करने लगेंगे तो हम दूसरों से वही व्यवहार करेंगे जो हम अपने साथ होने की उनसे आशा करते हैं तो खुशी और आनन्द हर जगह हमारा स्वागत करता रहेगा ।

गीता के अनुसार परमात्मा सच्चिदानन्द है और जीव उसका अंश है तो फिर वह अपने-आप से क्या छुपा कर रखेगा ? इसलिए मनुष्य जीवन में सदैव खुशी, तन्दुरस्ती, दौलत, ज्ञान और आनन्द के अखण्ड भण्डार विद्यमान रहते हैं । केवल सही बुद्धि के प्रयोग से इनका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है। भीखा जी कहते हैं-

भीखा भूखा कोई नहीं, सबकी गठरी लाल । गांठ खोल नहीं देखते, इस विद्य भये कंगाल ||

इसलिए संसार में इन्सान के लिए सब कुछ पर्याप्त है । आवश्यकता है तो केवल इन्सान बनने की । परमात्मा ने स्वर्ग अथवा मोक्ष का दरवाजा भी किसी के लिए बन्द करके नहीं रखा। इसको नर-नारायणी देह दी है। सर्वोत्तम शरीर दिया है मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, शक्ति दी है। शास्त्रों की रचना उत्तम शरीर गृहस्थ फल-फूल और सबकुछ दिए है। जिससे मनुष्य यदि चाहे तो संसार में रहता हुआ, भी स्वर्ग जैसा सुख भोग सकता है और देवताओं के ऊंचे लोकों में भी जा सकता है और चाहे तो अपने पुरुषार्थ से ईश्वर में लीन भी हो सकता है, यह शरीर अनमोल है और मालिक से मिलने का दुर्लभ अवसर है मानव जन्म दुःखी रहने और दूसरों की निंदा, चुगली, इर्षा द्वेष छल, कपट और शत्रुता के लिए नहीं मिला, यदि जीव को दुःख मिलता है तो इसके अपने मन्द कर्मों से ही मिलता है ।

गीता के अनुसार मानव जन्म को पाकर यह विचार करना चाहिए कि यह जगत क्या है, कैसे उत्पन्न हुआ, किसने इसे पैदा किया और हमारा इससे क्या सम्बन्ध है? जैसे स्वप्न के दृश्य थोड़ी देर के लिए पैदा होते हैं और नींद खुल जाने पर मिट जाते हैं इसी तरह मनुष्य को परमात्मा और अपनी हस्ती का ज्ञान होते ही संमार का भ्रम मिट जाता है। जब मनुष्य अपने स्वरूप को जानकर उससे एक मिक हो जाता है तो फिर यह जगत उसके लिए दुःखसुख का कारण नहीं रहता । ज्ञानी के लिए जगत के दृश्य आकाश रूप है। यह जगत केवल अज्ञान से भ्रमित होता है। जो कुछ इस संसार में परमात्मा के सिवा नजर आता है वह सब भ्रांति मात्र है । द्रष्टा और दृश्य का ठीक-ठीक ज्ञान न होना ही बंधन का कारण है। जब तक जीव भाव है तब तक संसार है । जीव भाव से निवृत होना ही वास्तव में मोक्ष है।

 

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