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श्राद्ध क्या है यह क्यों करना चाहिए श्राद्ध में वर्जित कार्य

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श्राद्ध क्या है यह क्यों करना चाहिए श्राद्ध में वर्जित कार्य

 हिन्दू संस्कृति में पितृपक्ष का बड़ा महत्त्व है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मृत्यु होने पर मनुष्य का जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाता है और ऊँचा उठकर पितृलोक में पहुँचता है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिण्डदान और श्राद्ध का विधान किया गया है। श्राद्ध में पितरों के नाम पर यथाशक्ति ब्राह्मणभोजन एवं दान भी किया जाता है।
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श्राद्ध क्या है और क्यों करते हैं?

वस्तुतः श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। मृत आत्मा के प्रति श्रद्धापूर्वक किए कार्य को श्राद्ध कहते हैं, श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम केवल श्राद्ध ही है। यह हमारी संस्कृति की महानता है। तर्पण के द्वारा उनके जीवन का उत्थान होगा, उन्हें शान्ति मिलेगी तो उनकी अन्तरात्मा से आपके प्रति शान्तिदायक सद् प्रेरणाएँ निकलेंगी। अतः श्राद्धपक्ष में तर्पण-श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। 

श्राद्ध कब होता हैं?

भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से पितरों का दिन प्रारम्भ हो जाता है, जो अमावस्या तक रहता है। शुक्लपक्ष पितरों की रात्रि कही गई है। इसलिए मनुस्मृति में कहा गया है- मनुष्यों के एक मास के बराबर पितरों का एक अहोरात्र (दिन-रात) होता है। मास में दो पक्ष होते हैं। मनुष्यों का कृष्णपक्ष पितरों के कर्म का दिन और शुक्लपक्ष पितरों के सोने के लिए रात होती है।

श्राद्ध में वर्ज्य-निषिद्ध बातें

श्राद्ध में कुछ ऐसी बातें हैं जो वर्ज्य हैं अर्थात् निषिद्ध हैं, उन्हें श्राद्ध के दिन नहीं करना चाहिए-

(1) श्राद्धकर्ता के लिए निषिद्ध सात बातें

 ताम्बूल (पान आदि न खाएं), तैलमर्दन, उपवास, स्त्री सम्भोग, ओषध (दवाई आदि न लें) तथा परान्नभक्षण (दूसरे का भोजन न करें)-ये सात बातें श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित हैं। (श्राद्धकल्प)

(2) श्राद्ध भोक्ता के लिए आठ वस्तुओं का निषेध

पुनर्भोजन (दुबारा भोजन न करे), यात्रा, भार ढोना, परिश्रम, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम-श्राद्धान्न भोजन करने वाले को इन आठ बातों से बचना चाहिए। (विष्णुरहस्य)

 (3) श्राद्ध में लोहे के पात्र का सर्वथा निषेध

श्राद्ध में लोहे के पात्र का उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए। लोहपात्र में भोजन करना। भी नहीं चाहिए तथा ब्राह्मण को भोजन कराना भी नहीं चाहिए। यहाँ तक कि भोजनालय या पाकशाला में भी उसका कोई उपयोग न करें। केवल शाक, फल आदि के काटने में उसका उपयोग कर सकते हैं, लोहे के दर्शन मात्र से पितर वापस लौट जाते हैं। 👉Remedies उपाय👈

( 4 ) श्राद्ध में निषिद्ध कुश

चिता में बिछाये हुए, रास्ते में पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञ में उपयोग में लिए हुए, बिछौने, गन्दगी से और आसन में से निकाले हुए, पिण्डों के नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश निषिद्ध समझे जाते हैं। (श्राद्धसंग्रह)

(5) श्राद्ध में निषिद्ध गन्ध

श्राद्ध में श्रीखण्ड, चन्दन, खस, कर्पूरसहित सफेद चन्दन ही पिताकार्य के लिए य प्रशस्त हैं। अन्य पुरानी लकड़ियों के चन्दन तथा निर्गन्ध काष्ठों का चन्दन के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। कस्तूरी, रक्तचन्दन, गोरोचन, सल्लक तथा पूतिक आदि निषिद्ध हैं। (श्राद्धप्रकाश)

(6) श्राद्ध में त्याज्य पुष्प

कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के सभी फूल तथा उग्र गन्ध वाले और गन्ध रहित सभी फूल-श्राद्ध में वर्जित हैं।

(7) निषिद्ध धूप

अग्नि पर दूषित गुग्गुल अथवा बुरा गोंद अथवा केवल घी डालना निषिद्ध है। (मदनरत्न) 

( 8 ) श्राद्ध में निषिद्ध ब्राह्मण

श्राद्ध में चोर, पतित, नास्तिक, मूर्ख, धूर्त, मांसविक्रयी, व्यापारी, नौकर, कुनखी काले दाँत वाले, गुरुद्वेपी, शूद्रपति, भृतकाध्यापक-भृतकाध्यापित (शुल्कों से पढ़ाने या पढ़ने वाला), काना, जुआरी, अन्धा, कुश्ती, सिखाने वाला, नपुंसक इत्यादि अध ब्राह्मणों को त्याग देना चाहिए। (कूर्मपुराण)

(9) श्राद्ध में निषिद्ध अन्न

जिसमें बाल और कीड़े पड़ गए हों, जिसे कुत्तों ने देख लिया हो, जो बासी एवं दुर्गन्धित हो-ऐसी वस्तु का श्राद्ध में उपयोग न करे। बैंगन और शराब का भी त्याग करे। जिस अन्न पर पहने हुए वस्त्र की हवा लग जाए, वह भी श्राद्ध में वर्जित है। राजमाष, मसूर, अरहर, गाजर, कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना—ये सब वस्तुएँ श्राद्ध में वर्जित हैं।

10) श्राद्ध में मांस का निषेध

बृहत्पाराशर में कहा गया है कि श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जलाकर उसका कोयला बेचता है। वह तो वैसा मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कुएँ में अपने वस्तु डालकर फिर उसे पाने की इच्छा करता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि न तो कभी मांस खाना चाहिए न श्राद्ध में ही देना चाहिए। सात्त्विक अन्न- फलों से पितरों की सर्वोत्तम तृप्ति होती है। मनु का कहना है कि मांस न खाने वाले की सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। वह जो कुछ सोचता है, जो कुछ चाहता है, जो कुछ कहता है, सब सत्य हो जाता है। (बृहदुपराश्वर) 👉RASHIFAL राशिफल👈
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श्राद्ध में प्रयोजनीय एवं प्रशस्त विशेष बाते

 श्राद्ध में आठ दुर्लभ प्रयोजनीय

श्राद्ध में कुछ बातें अत्यन्त महत्त्व की हैं, जैसे कुतप वेला-दिन का आठवाँ मुहूर्त्त (दिन में 11 बजकर, 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट तक का समय) श्राद्ध लिए यह काल मुख्य रूप से प्रशस्त है। इसे ही कुतप वेला कहते हैं।  ये आठों भी कुतप के समान ही फलदायी होने के कारण कुतप कहलाते हैं। श्राद्ध के लिए ये बड़े ही दुर्लभ प्रयोजनीय हैं। (मत्स्यपुराण)

श्राद्ध में कुश तथा कृष्ण तिल की महिमा

कुश तथा काला तिल—ये दोनों भगवान् विष्णु के शरीर से प्रादुर्भूत हुए हैं। अतः ये श्राद्ध की रक्षा करने में सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं। समूलाग्र हरित (जड़) | से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिणाम के कुश श्राद्ध में उत्तम कहे गए हैं। (मत्स्यपुराण)

श्राद्ध में रजत (चाँदी) की महिमा

श्राद्ध में पितरों के निमित्त पात्र के रूप में पलाश तथा महुआ आदि के वृक्षों के पत्तों क के दोने तथा काष्ठ एवं हाथ से बनाए मिट्टी आदि के पात्रों का प्रयोग किया जा सकता। है। परन्तु इसके साथ ही सुवर्णमय एवं रजतमय पात्रों के प्रयोग की विधि है। मुख्य न रूप से श्राद्ध में रजत (चाँदी) का विशेष महत्त्व कहा गया है। पितरों के निमित्त यदि स चाँदी से बने हुए या चाँदी से मढ़े हुए पात्रों द्वारा श्रद्धापूर्वक जलमात्र भी प्रदान कर दिया। जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। इसी प्रकार पितरों के लिए अर्ध, पिण्ड और भोजन के पात्र भी चाँदी के ही प्रशस्त माने गए हैं। चूँकि चाँदी शिवजी के नेत्र से उद्भूत हुई है, इसलिए यह पितरों को परम प्रिय है। यहाँ तक लिखा है कि यदि चाँदी का और पात्र देने का सामर्थ्य न हो तो चाँदी के विषय में कथोपकथन (चर्चा), दर्शन अथवा दान से कार्य सम्पन्न हो सकता है। (मत्स्यपुराण)

श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र प्रयोजनीय

दौहित्र (कन्या का पुत्र), कुतप (दिन का आठवाँ मुहूर्त्त) और तिल-ये तीन तथा चाँदी का दान और भगवत्स्मरण-ये सब श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र माने गए हैं। (विष्णुपुराण)

श्राद्ध में महत्त्व के सात प्रयोजनीय

दूध, गङ्गाजल, मधु, तसर का कपड़ा, दौहित्र, कुतप और तिल - ये सात श्राद्ध में बड़े महत्त्व के प्रयोजनीय हैं। (हेमाद्रि)

श्राद्ध में तुलसी की महिमा

तुलसी की गन्ध से पितृगण प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरूढ़ हो विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरलोग प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं (श्राद्धकल्पता-मार्कण्डेय)

 श्राद्ध में तीन गुणों की आवश्यकता

पवित्रता, अक्रोध, अचापल्य (जल्दबाजी न करना) - ये तीन प्रशंसनीय गुण हैं। | अतः श्राद्धकर्त्ता में होने आवश्यक हैं। (मनुस्मृति)

श्राद्ध में ग्राह्य पुष्प

श्राद्ध में मुख्य रूप से सफेद पुष्प ग्राह्य हैं। सफेद में सुगन्धित पुष्प की विशेष महिमा है। मालती, जूही, चम्पा प्रायः सभी सुगन्धित श्वेत पुष्प, कमल, तथा तुलसी और भृङ्गराज आदि पुष्प प्रशस्त है। स्मृतिसार के अनुसार अगस्त्य पुष्प, भृङ्गराज, तुलसी, शतपत्रिका, चम्पा, तिलपुष्प-ये छ: पितरों को प्रिय होते हैं। (निर्णयसिन्धु)

श्राद्धदेश

गया, पुष्कर, प्रयाग, कुशावर्त (हरिद्वार) आदि तीर्थों में श्राद्ध की विशेष महिमा है। सामान्यतः घर में, गोशाला में, देवालय, गङ्गा, यमुना, नर्मदा आदि पवित्र नदियों के तट पर श्राद्ध करने का अत्यधिक महत्त्व है। श्राद्ध-स्थान को गोबर-मिट्टी से लेपनकर शुद्ध कर लेना चाहिए। दक्षिण दिशा की और ढाल वाली श्राद्धभूमि प्रशस्त मानी गई है। (श्राद्धप्रकाश)

श्राद्ध में प्रशस्त अन्न फलादि

ब्रह्मा जी ने पशुओं की सृष्टि करते समय सबसे पहले गौओं को रचा है; अतः श्राद्ध में उन्हीं का दूध, दही और घी काम में लेना चाहिए। जौं, धान, तिल, गेहूँ, मूँग, साँवाँ, सरसों का तेल, तिन्नी का चावल, कँगनी आदि से पितरों को तृप्त करना चाहिए। आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इन्द्र, जौं और भतुआ-इनको श्राद्ध में यत्नपूर्वक लेना चाहिए। जौं, कंगनी, मूँग, गेहूँ, धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों- -इनका श्राद्ध में होना अच्छा है। (मार्कण्डेयपुराण)

श्राद्ध में प्रशस्त ब्राह्मण

शील, शौच एवं प्रज्ञा से युक्त सदाचारी तथा सन्ध्या-वन्दन एवं गायत्री मन्त्र का जप करने वाले क्षत्रिय ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रण देना चाहिए। तप, धर्म, दया, दान, सत्य, -104- ज्ञान, वेदज्ञान, कारुण्य, विद्या, विनय तथा अस्तेय (अचौर्य) आदि गुणों से युक्त ब्राह्मण इसका अधिकारी है।

 प्रशस्त आसन

रेशमी, नेपाली कम्बल, ऊन, काष्ठ, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। काष्ठासनों में भी शमी, काश्मरी, शल्ल, कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ हैं। इनमें भी लौह की कील नहीं होनी चाहिए।

श्राद्ध में भोजन के समय मौन आवश्यक

श्राद्ध में भोजन के समय मौन रहना चाहिए। माँगने या प्रतिषेध करने का संकेत हाथ से ही करना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण से अन्न कैसा है, यह नहीं पूछना चाहिए तथा भोजनकर्त्ता को भी श्राद्धान्न की प्रशंसा या निन्दा नहीं करनी चाहिए। (श्राद्धदीपिका)

पिण्ड की अष्ठाङ्गता

अन्न, तिल, जल, दूध, घी, मधु, धूप और दीप-ये पिण्ड के आठ अङ्ग हैं।

पिण्ड का प्रमाण

एकोद्दिष्ट तथा सपिण्ड में कैथ (कपित्थ) के फल के बराबर, मासिक तथा वार्षिक श्राद्ध में नारियल के बराबर, तीर्थ में तथा दर्शश्राद्ध में मुर्गी के अण्डे के बराबर तथा गया एवं पितृपक्ष में आँवले के बराबर पिण्ड देना चाहिए। (श्राद्धसंग्रह)

श्राद्ध में पात्र

सोने, चाँदी, काँसे और ताँबे के पात्र पूर्व-पूर्व उत्तमोत्तम हैं। इनके अभाव में पलाश आदि है। अन्य वृक्ष के पत्तल से काम लेना चाहिए, पर केले के पत्ते में श्राद्ध भोजन सर्वथा निषिध है। साथ ही श्राद्ध में पितरों के भोजन के लिये मिट्टी के पात्रका भी निषेध है। (श्राद्ध चन्द्रिका)

श्राद्ध में पाद- प्रक्षालन-विधि

श्राद्ध में ब्राह्मण को बैठाकर पैर धोना चाहिए। खड़े होकर पैर धोने पर पितर निराश होकर चले जाते हैं। पत्नी को दाहिनी ओर खड़ा करना चाहिए। उसे बाँयें रहकर जल नहीं गिराना चाहिए। अन्यथा वह श्राद्ध आसुरी हो जाता है और पितरों को प्राप्त नहीं होता। (स्मृत्यन्तर)
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श्राद्ध से जगत् की तृप्ति

मनुष्य को पितृगण की सन्तुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। श्राद्धकर्ता केवल अपने पितरों को ही तृप्त नहीं करता, बल्कि वह सम्पूर्ण जगत् को सन्तुष्ट करता है- यो वा विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम्। आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ।। ब्रह्मेन्द्ररुद्रनासत्यसूर्यानलसुमारुतान्। विश्वेदेवान् पितृगणान् पर्यग्निमनुजान पशून।। | सरीसृपान् पितृगणान् यच्चान्यद्भूतसंज्ञितान्। श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन् प्रीणयत्यखिलं जगत् ।। (ब्रह्मपुराण) 'जो मनुष्य अपने वैभव के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह साक्षात् ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त प्राणियों को तृप्त करता है। श्रद्धापूर्वक विधि-विधान से श्राद्ध | करने वाला मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, नासत्य (अश्विनीकुमार), सूर्य, अनल (अग्नि), वायु, विश्वेदेव, पितृगण, मनुष्यगण, पशुगण, समस्त भूतगण तथा सर्पगण को भी सन्तुष्ट करता हुआ सम्पूर्ण जगत् को सन्तुष्ट करता है।' विष्णुपुराण में कहा है- श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते बल्कि ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, आठों वसु, वायु, विश्वेदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप और ऋषिगण आदि तथा अन्य समस्त भूतप्राणी तृप्त होते हैं। इस प्रकार गृहस्थ को चाहिए कि वह हव्य से देवताओं का, कव्य से पितृगणों का तथा अन्न से अपने बन्धुओं का सत्कार तथा पूजन करें। श्रद्धापूर्वक देव, पितृ और बान्धवों के पूजन से मनुष्य परलोक में पुष्टि, विपुल यश तथा उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। यहाँ तक कहा है कि जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अन्तरात्मा में रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते हैं- ये यजन्ति पितॄन् देवान् ब्राह्मणांश्च हुताशनान्। सर्वभूतान्तरात्मानं विष्णुमेव यजन्ति ते ।। (यमस्मृति)

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